स्मृति का पुजारी ३०७ उसी की सजनता से सजन, उसी की उदारता से उदार । अब तो निरा मिट्टी का पुतला हूँ भाई साहब, बिल्कुल मुर्दा। मैं उस देवी के योग्य न था । न जाने किन शुभ-कमों के फल से वह मुझे मिली थी। आइए, श्रापको उसकी तस्वीर दिखाऊँ। मालूम होता है, अभी-अभी उठकर चली गई है । भाई साहब, आपसे साफ कहता हूँ, मैंने ऐसी सुदरी कभी नहीं देखी । उसके रूप में केवल रूप की गरिमा ही न थी, रूप का माधुर्य भी था और मादकता भी, एक-एक अंग सांचे ढला था साहब, आप उसे देखकर कवियों के नल-शिख को लात मारते। आप उत्सुक नेत्रो वह तस्वीर देखते हैं। श्रापको उस में कोई विशेष सौदर्य नहीं मिलता । स्थूल शरीर है, चौड़ा-सा मुंह, छोटी-छोटी आँखें, रंग- ढग से देहकानीपन झलक रहा है। पर उस तस्वीर को खूबियाँ कुछ इस अनुराग और इस प्राडबर से बयान किये जाते हैं कि आपको सचमुच उस चित्र में सौदर्य का आभास होने लगता है। इस गुणानुवाद में जितना समय जाता है, वही महाशयजी के जीवन के आनद की घड़िया है । इतनी हो देर वह जीवित रहते हैं । शेष जीवन निरानद है, निःपद है। पहले कुछ दिनों तक तो वह हमारे साथ हवा खाने जाते रहे-वह स्या जाते रहे, मैं जबरदस्ती ठेल-ठालकर ले जाता रहा, लेकिन रोन श्राध घंटे तक उनका इतज़ार करना पड़ता था। किसी तरह घर से निकलते भी तो जनवासी चाल से चलते और आध मील में ही हिम्मत हार जाते और लौट चलने का तकाज़ा करने लगते । आखिर मैंने उन्हें साथ ले जाना छोड़ दिया। और तबसे उनकी चेहलकदमी चालीस कदम की रह गई है। सैर क्या है वेगार है, और वह भी इसलिए कि देवीजी के सामने उनका यह नियम था। एक दिन उनके द्वार के सामने से निकला, तो देखा कि ऊपर की खिड़- किया जो बरसों से वद पड़ी थीं, खुली हुई हैं ! अचरज हुआ। द्वार पर नौकर बैठा नारियल पी रहा था। उससे पूछा, तो मालूम हुअा, आप घूमने गये हैं । मुझे मीठा विस्मय हुआ। आज यह नई बात क्यों ? इतने सवेरे तो यह कभी नहीं उठने । जिस तरफ वह गये थे, उधर ही मैंने की क़दम बढ़ाये। 1
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