पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/३०८

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स्मृति का पुजारी ३०९ या तुम कोई नई नीति निकालोगे। जमाने का दस्तूर है, जो लँगड़ाता हो उसे ढकेल दो, जो बीमार हो उसे जहर दे दो, और वही आदमी आज मुझसे पीछा छुड़ा रहा है। यह क्या रहस्य है। यह चपलता और प्रसन्नता और सजीवता कहाँ से आ गई। कहीं आपने बदर की गिल्टी तो नहीं लगवा ली। यह नया सिविल सार्जन गिल्टी-बारोपण-कला में सिद्धहस्त है । मुमकिन है, इन्हें किसी ने सुझा दिया हो और आपने हज़ार-पांच सौ खर्च करके गिल्टी बदलवा ली हो। इस पहेली को बूझे बगैर मुझे चैन कहाँ। उनके साथ ही लौट पड़ा। दो-चार कदम चलकर मैंने पूछा-सच बतानो भाई जान, गिल्टी- विल्टी तो नहीं लगवा ली? उन्होंने प्रश्न की आँखों से देखा- कैसी गिल्टी ? मैं नहीं समझता। 'मुझे सदेह हो रहा है कि तुमने बंदर की गिल्टियाँ लगवा ली धुम तो 'अरे यार क्यों कोसते हो। गिल्टियां किस लिए इसका कभी ख़याल भी नहीं पाया ।' 'तो क्या कोई बिजली का यत्र मॅगपड़े हो । विधवा भी तो कभी सिंगार 'तुम आज मेरे पीछे क्यों एक दिन मुझे अपने बालस्य और बेदिली पर कर लेती है ? जी ही तो e खेद हुआ। #चा, जब संसार मे रहना है, तो ज़िंदों की तरह क्यों न रहूँ । मरे की तरह जीने से क्या फायदा। बस और न कोई बात है, न रहस्य ।' मुझे इस व्याख्या से संतोष न हुआ। दूसरे दिन ज़रा और सवेरे आकर मुंशीजी के द्वार पर आवाज़ दी, लेकिन आप भी आज निकल चुके थे। मैं उनके पीछे भागा ? ज़िद पड़ गई कि इसे अकेले न जाने दूंगा। देखू , कब तक मुझसे भागता है। कोई रहस्य है अवश्य । अच्छा बचा, आधी रात को आकर बिस्तर से न उठाऊँ तो सही। दौड़ तो न सका; लेकिन जितना तेज चल सकता था, चला। एक मील के बाद आप नज़र आये। बगटुट भागे चले जा रहे थे। अब मैं बार-बार पुकार रहा हूँ--हज़रत, जरा ठहर जाइए, मेरी साँस फूल रही है, मगर आप है कि सुनते ही नहीं। आखिर जब अपने सिर की कसम दिलाई, तब जाकर आप रुके । मैं झपाटे से पहुँचा, २०