पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/३०९

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हाय ११ मानसरोवर नहीं छोड़ना चाहती। भाजी लेकर मैंने दाम देने के लिए रुपया निकाला, तो कुजड़े ने उसे ठकारकर कहा-दूसरा रुपया दो, यह खोटा है । अब मैंने, जो खुद ठकारा, तो मालूम हुश्रा, सचमुच कुछ ठस है । अब क्या करूँ। मेरे पास दूसरा रुपया न था, यद्यपि इस तरह के कटु अनुभव मुझे कितनी ही बार हो चुके हैं ; मगर घर से रुपया लेकर चलते वक्त मुझे उसे परख लेने की याद नहीं रहती। न किसी से लेती ही बार परखती हूँ। इस वक्त मेरे सदूक में मादा नहीं, तो बीस-पच्चीस खोटे रुपये पड़े होंगे, और रेजगारियां तो सैकड़ो ही होगी । मेरे लिए अब इसके सिवा दूसरा उपाय न था कि भाजो लौटाकर खाली हाथ चली पाऊँ । सयोग से महाशयजी उसी दूकान पर भाजी लेने आये थे। मुझे इस विपत्ति में देखकर आने तुरंत एक रुपया निकाल कर दे दिया... महाशय नी ने बात काटकर कहा-तो इस वक्त श्राप वह सारी - कथा क्यों सुना रही हैं। हम दोनों एक जरूरी काम से जा रहे हैं। व्यर्थ में देर हो रही है। उन्होंने मेरा हाथ पकड़कर अपनी और खींचा। मुझे उनकी यह अभद्रता बुरी लगी। कुछ कुछ इसका रहस्य भी समझ में आ गया । बोला-तो श्राप जाइए, मुझे ऐसा कोई ज़रूरी काम नहीं है । मैं भी अब लौटना चाहता हूँ। महाशय जी ने दांत पीस लिये, अगर वह सुदरी वहाँ न होती, तो न जाने मेरी क्या दुर्दशा करते। एक क्षण मेरी ओर अग्नि-भरे नेत्रों से ताकते रहे, मानों कह रहे हो-अच्छा बच्चा, इसका मज़ा न चखाया, तो कहना, और चल दिये। मै देवी के साथ लौटा। सहसा उसने हिचकिचाते हुए कहा-मगर नहीं, आप जाइए, मैं उनके साथ जाऊंगी। शायद मुझसे नाराज़ हो गये हैं। आज एक सप्ताह से मेरा और उनका रोज़ साथ हो जाता है और अब अपनी जीवन-कथा सुनाया करते हैं। कैसी.नसीबोवाली थी वह औरत, जिसका पति आज भी उसके नाम की पूजा करता है । आपने तो उन्हें देखा होगा। क्या सचमुच इनर जान देती थी ? ।