पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/३११

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जरा देहली तक गया था। अब सुदरी से अापकी मुलाकात नहीं मानसरोवर होती ? 'इधर तो बहुत दिनों से नहीं हुई।' 'कहीं चली गई क्या ? 'मुझे क्या खबर । 'मगर आप तो उस पर बेतरह रीझे हुए थे।' 'मैं उसपर रीझा था ! आर सनक तो नहीं गये हैं। जिस पर रीझा था, जब उसी ने साथ न दिया, तो अब दूसरों पर क्या रीढूंगा।' मैंने बैठकर उनकी गर्दन में हाथ डाल दिया और धमकाकर बोला- देखो होरीलाल, मुझे चकमा न दो। पहले मैं तुम्हें जरूर व्रतधारी समझता था, लेकिन तुम्हारी वह रसिकता देखकर, जिसका दोरा तुम्हारे ऊपर एक महीना पहले हुआ था, मैं यह नहीं मान सकता कि तुमने अपनी अभिलाषामा को सदा के लिए दफन कर दिया। इस बीच में जो कुछ हुआ है, उसका पूरा-पूरा वृत्तात मुझे सुनाना पड़ेगा। वरना समझ लो मेरी और तुम्हारी दोस्ती का अत है। होरीलाल की श्राखे सजल हो गई । हिचक-हिचककर बोले-मेरे साथ इतना बड़ा अन्याय मत करो भाई जान, अगर तुम्ही मुझपर ऐसे सदेह करने लगोगे, तो मैं कहीं का न रहूँगा। उस स्त्री का नाम मिस इदिरा है। वहाँ जो लड़कियों का हाई स्कून है, उसी की हेड मिस्ट्रेस होकर पाई है। मेरा उससे कैसे परिचय हुआ, यह तो तुम्हें मालूम ही है। उसकी सहृदयता ने मुझे उसका प्रेमी बना दिया। इस उम्र में और शोक का यह भार सिर पर रखे हुए, सहृदयता के सिवा मुझे उसकी ओर और' कौन-सी चीज़ खींच सकती थी। मैं केवल अपनी मनोव्यथा की कहानी सुनाने के लिए नित्य विरहियो की उमंग के साथ उसके पास जाता था। वह रूपवती है, खुश- मिज़ाज है, दूसरों का दुःख समझती है और स्वभाव की बहुत कोमल है, लेकिन तुम्हारी भाभी से उसकी क्या तुलना । वह तो स्वर्ग की देवी थी। उसने मुझपर जो रंग जमा दिया, उसपर अब दूसरा रंग क्या जमेगा । मैं उसी ज्योति से जीवित था उस ज्योति के साथ मेरा जीवन भी बिदा हों