स्मृति का पुजारी मैंने गर्व से कहा-दोनों मे इश्क था । 'और जबसे उनका देहात हुआ, यह दुनिया से मुंह मोड़ बैठे ?' 'इससे भी अधिक ! उसकी स्मृति के सिवा जीवन में इनके लिए कोई रस ही न रहा। 'वह रूपवती थी 'इनकी दृष्टि मे तो उससे बढकर रूपवती ससार में न थी।' उसने एक मिनट तक किसी विचार में मम रहकर कहा- अच्छा, प्रार जायें । मैं उनके साथ बात करूँगी। ऐसे देवता पुरुष की मुझसे जो सेवा हो सकती है, उसमें क्यों-दरेग करूँ। मैं तो उनका वृत्तात सुनकर सम्मोहित हो गई हूँ। मैं अपना-सा मुंह लेकर घर चला पाया। इत्तफाक से उसी दिन मुझे एक जरूरी काम से दिल्ली जाना पड़ा। वहां से एक महीने में लौय। और सबसे पहला काम जो मैने किया, वह महाशय होरीलाल का क्षेमे-कुशल पूछना था। इस बीच में क्या क्या नई बाते हो गई -यह जानने के लिए अधीर हो रहा था। दिल्ली से इन्हें एक पत्र लिखा था, पर इन हजरत में यह बुरी आदत है कि पत्रों का जवाब नहीं देते। उस सुंदरी से इनका अब क्या सबध है, आमदरफ्त जारी है, या बद हो गई, उसने इनके पत्न व्रत का क्या पुरस्कार दिया, या देनेवाली है ? इस तरह प्रश्न मे उबल रहे थे। . मैं महाशय जी के घर पहुंचा, तो आठ बज रहे थे । खिड़कियों के पट बंद थे । सामने बरामदे में कूड़े-करकट का ढेर था। ठीक वही दशा थी, जो पहले नजर आती थी। चिंता और बढ़ी। ऊपर गया, तो देखा, श्राप उसी फर्श पर पडे हुए-जहाँ दुनिया भर की चीजें वेढगेपन से अस्त-व्यस्त पडी हुई हैं-एक पत्रिका के पन्ने उलट रहे हैं । शायद एक सप्ताह से बाल नहीं बने थे । चेहरे पर जर्दी छाई थी। मैंने पूछा- -आप सैर करके लौट आये क्या ? सिटपिटाकर बोले-अजी, सैर-सपाटे की कहाँ फुर्सत है भई, और फुर्सत भी हो, तो वह दिल कहाँ है । तुम तो कहीं बाहर गये थे !
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/३१२
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