पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/४०

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दा कत्रे ३९ रामेंद्र-मगर ये लोग तो विचारों के बड़े स्वाधीन हैं। इनकी औरते भी शिक्षित हैं, फिर यह क्या बात है ? सुलोचना ने दबी जवान से कहा- मेरी समझ मे कुछ नहीं पाता। रामेंद्र ने कुछ देर असमंजस में पडकर कहा-हम लोग किसी दूसरी जगह चले जायें, तो क्या हर्ज ? वहाँ तो कोई हमें न जानता होगा। सुलोचना ने अबकी तीव्र स्वर में कहा-दूसरी जगह क्यों जायें। हमने किसी का कुछ बिगाड़ा नहीं है, किसी से कुछ मांगते नहीं। जिसे आना हो श्राये, न आना हो न आये । मुँह क्यों छिपाये। धीरे-धीरे रामेंद्र पर एक और रहस्य खुलने लगा, जो महिलाओं के व्यवहार से कहीं अधिक घृणास्पद और अपमान-जनक था। रामेंद्र को अब मालूम होने लगा कि ये महाशय जो पाते हैं और घटो बैठे सामाजिक और राजनीतिक प्रश्नों पर बहसे किया करते हैं, वास्तव में विचार-विनिमय के लिए नहीं , वल्कि रूप की उपासना के लिए आते हैं। उनकी आँखें सुलोचना को खोजती रहती हैं। उनके कान उसी की बातों की ओर लगे रहते हैं । उसकी लप-माधुरी का श्रानंद उठाना ही उनका अभीष्ट है। यहां उन्हें वह संकोच नहीं होता, जो किसी भले अादमी की बहू-वेटी की ओर आँखें नहीं उठने देता । शायद वे सोचते हैं, यहां उन्हे कोई रोक-टोक नहीं है। कभी-कभी जब रामेंद्र की अनुपस्थिति में कोई महाराय आ जाते, तो सुलोचना को बड़ी कठिन परीक्षा का सामना करना पड़ता। वे अपनी चित- वनों से, अपने कुत्सित सकेतों से, अपनी रहस्यपूर्ण बातों से, अपनी लबी सांसो से उसे दिखाना चाहते थे, कि हम भी तुम्हारी कृपा के भिखारी है; अगर रामेद्र का तुम पर सोलहों थाना अधिकार है, तो थोड़ी-सी दक्षिणा के अधिकारी हम भी हैं । सुलोचना उस वक्त जहर का चूंट पीकर रह जाती। अब तक रामेंद्र और सुलोचना दोनों क्लव जाया करते थे। वहाँ उदार सज्जनों का अच्छा जमघट रहता था। जब तक रामेंद्र को किसी की ओर से सदेह न था, वह उसे अाग्रह करके अपने साथ ले जाते थे। सुलोचना के पहुंचते ही वहाँ एक स्फूर्ति-सी उत्पन्न हो जाती थी। जिस मेल पर सुलोचना