पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/४३

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४२ मानसरोवर अँगरेजी, लेकिन रामेंद्र इस अवसर पर न जाना चाहते थे। अपने मित्रों की सज्जनता और उदारता की अतिम परीक्षा लेने का इससे अच्छा और कौन-सा अवसर हो सकता था। सलाह हुई, एक शानदार दावत दी जाय । प्रोग्राम मे संगीत भी शामिल था। कई अच्छे अच्छे गवैये बुलाये गये हिंदुस्तानी, मुसलमानी, सभी प्रकार के भोजनो का प्रबंध किया गया। कुँअर साहब गिरते-पड़ते मसूरी से आये । उसी दिन दावत थी। नियत समय पर निमत्रित लोग एक-एक करके आने लगे। कुवर साहब स्वयं उनका स्वागत कर रहे थे । खां साहब आये, मिर्जा साहब आये, मीर साहब आये ; मगर पडितजी और बाबूजी और लाला साहब और चौधरी साहब और कक्कड़, मेहरा और चोपड़ा, कौल और हुक्कू, श्रीवास्तव और खरे किसी का पता न था। यह सभी लोग होटलो मे सब कुछ ख़ाते थे, अडे और शराब उड़ाते थे-इस विषय में किसी तरह का विवेक या विचार न करते थे। फिर अाज क्यो तशरीफ नहीं लाये ! इसलिए नहीं कि छूत-छात का विचार था ; बल्कि इसलिए कि वह अपनी उपस्थिति को इस विवाह के समर्थन की सनद समझते थे और वह सनद देने को उनकी इच्छा न थी। दस बजे रात तक कुवर साहब फाटक पर खड़े रहे। जब उस वक्त तक कोई न आया, तो कुंवर साहब ने पाकर गमेद्र से कहा-अब लोगों का इंतज़ार फजूल है । मुसलमानो को खिला दो और बाकी सामान गरीबो को दिला दो। रामेद्र एक कूर्सी पर हतबुद्धि से बैठे हुए थे। कुंठित स्वर में बोले- जी हाँ, यही तो मैं सोच रहा हूँ । कुँवर-मैंने तो पहले ही समझ लिया था। रामेद्र -- कितनी बड़ी तौहीन हुई । कुँवर-हमारी तौहीन नहीं हुई। खुद उन लोगों की कलई खुल गई। रामेंद्र--खेर, परीक्षा तो हो गई । कहिए तो अभी जाकर एक-एक की खबर लू। कुँवर साहब ने विस्मित होकर कहा -क्या उनके घर जाकर ? -