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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/४६

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दो करें ४५ ( ६ ) गुलनार के चले जाने के बाद रामेद्र अपने कमरे में जा बैठे। जैसी पराजय उन्हे अाज हुई, वेसी पहले कभी नहीं हुई। वह अात्मभिमान, वह सच्चा क्रोध, जो अन्याय के ज्ञान से पैदा होता है, लुप्त हो गया था। उसकी जगह लजा थी और ग्लानि । इसे बधावे की क्यों सूझ गई। यों तो कभी आती-जाती न थी, आज न जाने कहाँ से फट पडा। कुवर साहब होंगे इतने उदार | उन्होंने जुहरा के नातेदारों से भाईचारे का निबाह किया होगा, मैं इतना उदार नहीं हूँ | कहीं सुलोचना छिपकर इसके पास आती-जाती तो नहीं लिखा भी तो है कि मिलने का जी चाहे तो रात को पाना और अकेली-क्यों न हो, खून तो वही है, मनोवृत्ति वही, विचार वही, आदर्श वही । माना, कुवर साहब के घर में पालन-पोषण हुआ; मगर रक्त का प्रभाव इतनी जल्दी नहीं मिट सकता । अच्छा, दोनों बहने 'मनती होंगी, तो उनमें क्या बात होती होंगी? इतिहास या नीति की चर्चा तो हो नहीं सकती। वही निर्लजता की बाते होती होगी। गुलनार अपना वृत्तात कहती होगी, उस बाजार के खरीदारो और दूकानदारों के गुण-दोषो पर रहत होती होगी। यह तो हो ही नहीं सकता कि गुलनार इसके पास आते ही अपने को भूल जाय और कोई भद्दी, अनर्गल और कलुषित बाते न करे । एक क्षण में उनके विचारो ने पलटा खाया ; मगर अादमी विना किसी से मिले-जुले रह भी तो नहीं सकता, यह भी तो एक तरह की भूख है । भूख मे अगर शुद्ध भोजन न मिले, तो आदमी जूठा खाने से भी परहेज नहीं करता। अगर इन लोगों ने सुलोचना को अपनाया होता, उसका यों बहिष्कार न करते, तो उसे क्यों ऐसे प्राणियों से मिलने की इच्छा होती । उसका कोई दोप नहीं, यह सारा दोष परिस्थितियों का है, जो हमारे अतीन की याद दिलाती रहती हैं। रामेद्र इन्हीं विचारों में पड़े हुए थे कि कुँवर साहब आ पहुँचे और बडु स्वर में बोले- मैने सुना गुलनार अभी वधावा लाई थी, तुमने उसे लौटा दिया। रामेंद्र का विरोध संजीव हो उठा। बोले मैंने तो नहीं पैदा सुनोचना ने लौटाया, पर मेरे ख्याल में अच्छा किया । 5 ,