मानसरोवर m -- in . कुवर-तो यह कहो, तुम्हारा इशारा था। तुमने इन पतितों को अपनी ओर खींचने का कितना अच्छा अवसर हाथ से खो दिया है ! सुलोचना को देखकर जो कुछ असर पड़ा, वह तुमने मिटा दिया। बहुत सभव था कि एक प्रतिष्ठित आदमी से नाता रखने का अभिमान उसके जीवन में एक नये युग का प्रारभ करता; मगर तुमने इन बातों पर जरा भी ध्यान न दिया। रामेंद्र ने कोई जवाब न दिया। कुँवर साहब जरा उत्तेजित होकर बोले-आप लोग यह क्यो भूल जाते हैं कि हरेक बुराई मजबूरी से होती है । चोर इसलिए चोरी नहीं करता कि चोरी मे, उसे विशेष आनंद आता है बल्कि केवल इसलिए कि ज़रूरत उसे मजबूर करती है। हाँ, वह ज़रूरत वास्तविक है या काल्पनिक इसमे मतभेद हो सकता है। स्त्री के मैके जाते समय कोई गहना बनवाना एक आदमी के लिए ज़रूरी हो सकता है , दूसरे के लिए बिलकुल गैरज़रूरी। क्षुधा से व्यथित होकर एक आदमी अपना ईमान खो सकता है, दूसरा मर जायगा ; पर किसी के सामने हाथ न फैलायेगा पर प्रकृति का यह नियम आप जैसे विद्वानों को न भूलना चाहिए कि जीवन- लालसा प्राणीमात्र में व्यापक है। ज़िदा रहने के लिए आदमी सब कुछ कर सकता है । जिंदा रहना जितना ही कठिन होगा, बुराइयाँ भी उसी मात्रा में बढ़ेगी, जितना ही आसान होगा उतनी ही बुराइयाँ कम होगी। हमारा यह पहला सिद्धात होना चाहिए कि ज़िंदा रहना हरेक के लिए सुलभ हो । रामेद्र बाबू , आप ने इस वक्त इन लोगो के साथ वही व्यवहार किया, जो दूसरे आप के साथ कर रहे हैं और जिससे आप बहुत दुःखी हैं । रामेद्र ने इस लबे व्याख्यान को इस तरह सुना, जैसे कोई पागल बक रहा हो । इस तरह की दलीलो का वह खुद कितनी ही बार समर्थन कर चुके थे ; पर दलीलो से व्यथित अग की पीड़ा नहीं शान होती। पतित स्त्रियों का नातेदार की हैसियत से द्वार पर आना इतना अपमानजनक था कि रामेद्र किसी दलील से पराभूत होकर उसे भूल न सकते थे। बोले- मै ऐसे प्राणियों से कोई सबध नहीं रखना चाहता। यह विष अपने घर में नहीं फैलाना चाहता। सहसा सुलोचना भी कमरे में आ गई । प्रसवकाल का असर अभी बाकी पर उत्तेजना ने चेहरे को आरक्त कर रखा था। रामेंद्र सुलोचना को था
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