पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/५०

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दो करें उनके मुंह से निकलनेवाले शब्दों को ताड़ गई । उसका चेहरा तमतमा उठा, मानो छाती मे बरछी सी लग गई । मन मे ऐसा उद्वग उठा कि इसी क्षण यह घर छोड़कर, सारी दुनिया से नाता तोड़कर चली जाऊँ और फिर इन्हें कभी मुंह न दिखाऊँ । अगर इसी का नाम विवाह हैं कि किसी की मर्जी की गुलाम होकर रहूँ, अपमान सहन करूँ, तो ऐसे विवाह को दूर ही से सलाम है। वह तैश मे आकर कमरे से निकलना चाहती थी कि कुवर साहब ने लपककर उसे पकड लिया और बोले- क्या करती हो बेटी, घर मे जाओ, क्यो रोती हो ? अभी तो मै जीता हूँ, तुम्हें क्या ग़म है ! रामेंद्र बाबू ने कोई ऐसी बात नहीं कही और न कहना चाहते थे। फिर आपस की बातों का क्या बुरा मानना, किसी अवसर पर तुम भी जो जी मे आवे कह लेना। यो समझाते हुए कुँवर साहब उसे अदर ले गये । वास्तव में सुलोचना कभी गुलनार से मिलने की इच्छुक न थी। वह उससे स्वय भागती थी। एक क्षणिक आवेश में उसने गुलनार को वह पुरजा लिख दिया था। मन में स्वय समझती थी, कि इन लोगों से मेल-जोल रखना मुनासिब नहीं ; लेकिन रामेद्र ने यह विरोध किया, यही उसके लिए असह्य था। यह मुझे मना क्यों करे ? इतना भी नहीं समझती ? क्या इन्हें मेरी ओर से इतनी शका है ? इसीलिए तों, कि मैं कुलीन नहीं हूँ ! मैं अभी-अभी गुलनार से मिलने जाऊँगी, ज़िद्दन जाऊँगी , देखू मेरा क्या करते हैं। लाड़-प्यार में पली हुई सुलोचना को कभी किसी ने तीखी आँखों से न देखा था। कुंवर साहब उसकी मर्जी के गुलाम थे। रामेंद्र भी इतने दिनों उसका मुंह जोहते रहे । आज अकस्मात् यह तिरस्कार और फटकार पाकर उसकी स्वेच्छा प्रम और श्रात्मीयता के सारे नातों को पैरो से कुचल डालने के लिए विकल हो उठी । वह सब कुछ सह लेगी ; पर यह धौस, यह अन्याय यह अपमान, उससे न सहा जायगा । उसने खिड़की से सिर निकालकर कोचवान को पुकारा और बोली- गाड़ी लाओ, मुझे चौक जाना है, अभी लाओं। कुँवर साहब ने चुमकारकर कहा- बेटी सिल्लो, क्या कर रही हो, मेरे ऊपर क्या - n