पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/५२

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- दो को होश आया, तो घर में सन्नाटा छाया हुआ था। धड़ी की तरफ आँख उठी, एक बज रहा था। सामने आराम कुर्सी पर कुँवर साहब नवजात शिशु को गोद मे लिये सो गये थे। सुलोचना ने उठकर बगमदे मे झांका, रामेद्र अपने पलंग पर लेटे हुए थे । उसके जी में आया, इसी वक्त इन्हीं के सामने लाकर कलेजे में छुरी मार लूं और इन्हीं के सामने तड़प तड़पकर मर जाऊँ वह घातक शब्द याद आ गये। इनके मुंह से ऐसे शब्द निकले क्योंकर । इतने चतुर, इतने उदार और इतने विचारशील होकर भी वह ज़बान पर ऐसे शब्द क्योंकर ला सके । उसका सारा सतीत्व, भारतीय पादशों की गोद में पली हुई, भूमि पर आहत पड़ी हुई, अपनी दीनता पर रो रहा था। वह सोच रही थी, अगर मेरे नाम पर यह दाग़ न होता, मै भी कुलीन होती, तो क्या यह शब्द इनके मुंह से निकल सकते थे ? लेकिन मैं बदनाम हूँ, दलित हूँ, त्याज्य हूँ, मुझे सब कुछ कहा जा सकता है। उफ इतना कठोर हृदय । क्या वह किसी दशा से भी रामेंद्र पर इतना कठोर प्रहार कर सकती थी ? बरामदे में बिजली की रोशनी थी । रामेंद्र के मुख पर क्षोभ या ग्लानि का नाम भी न था। क्रोध की कठोरता अब तक उनके मुख को विकृत किये हुए थी। शायद इन आँखो मे अासू देखकर अब भी सुलोचत्ता के पाहत हृदय कों तसकीन होती , लेकिन वहां तो अभी तक तुलवार खिंची हुई थी। उसकी आँखों मे सारा ससार सूना हो गया । 2 सुलोचना फिर अपने कमरे में श्राई। कुवर साहेब की अाँखे अब भी वद थीं। इन चद घटों ही मे उनका तेजस्वी मुख कान्तिहीन हो गया था । गालों पर बांसुओं की रेखाएँ सूख गई थीं। सुलोचना ने उनके पैरों. के पास बैठकर सच्ची भक्ति के आंसू बहाये । हाय ! मुझ अभागिनी के लिए इन्होंने कौन-कौन से कष्ट नहीं झेले, कौन-कौन से अपमान नहीं सहे, अपना सारा जीवन ही मुझ पर अर्पण कर दिया और उसका यह हृदय-विदारक अत । सुलोचना ने फिर बच्ची को देखा , भगर उसका गुलाब का-सा विकसित मुख देखकर भी उसके हृदय में ममता की तरग न उठी। उसने उसकी तरफ