पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/५४

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ढपोरसंख मुरादाबाद मे मेरे एक पुराने मित्र हैं, जिन्हे दिल में तो मैं एक रत्न समझता हूँ , पर पुकारता हूँ ढोरसख कहकर और वह बुरा भी नहीं मानते। ईश्वर ने उन्हे जितना हृदय दिया है, उसकी आधी बुद्धि दी होती, तो आज वह कुछ और होते ! उन्हें हमेशा तगदस्त ही देखा; मगर किसी के सामने कभी हाथ फैलाते नहीं देखा। हम और वह बहुत दिनों तक साथ पढ़े हैं, खासी बेतकल्लुफी है ; पर यह जानते हुए भी, कि मेरे लिए सौ-पचास रुपए से उनकी मदद करना कोई बड़ी बात नहीं और मैं बड़ी खुशी से करूँगा, कभी मुझसे एक पाई के रवादार न हुए ; अगर हीले से बच्चों को दो-चार रुपये दे देता हूँ, तो बिदा होते समय उसकी दुगनी रकम के मुरादाबादी बर- तन लादने पड़ते हैं । इसलिए मैंने यह नियम बना लिया है कि जब उनके पास जाता हूँ, तो एक दो दिन मे जितनी बड़ी से बड़ी चपत दे सकता हूँ, देता हूँ। मौसिम मे जो महँगी-से-महंगी चीज़ होती है, वही खाता हूँ। और मांग-मांगकर खाता हूँ, मगर दिल के ऐसे बेहया है, कि अगर एक बार भी उधर से निकल जाऊँ और उनसे न मिलूं, तो बुरी तरह डॉट बताते हैं । इधर दो-तीन साल से मुलाकात न हुई थी। जी देखने को चाहता था। मई मे नैनीताल, जाते हुए उनसे मिलने के लिए उतर पडा। छोटा-सा घर है, छोटा सा परिवार, छोटा-सा डील । द्वार पर आवान दी- ढपोरसख । तुरत बाहर निकल आये और और गले से लिपट गये। तांगे पर से मेरे ट्रक को उतारकर कधे पर रखा, बिस्तर बग़ल मे दबाया और घर मे दाखिल हो गये । कहता हूँ, बिस्तर मुझे दे दो , मगर कौन सुनता है। भीतर कदम रखा, तो देवीजी के दर्शन हुए। छोटे बच्चे ने पाकर प्रणाम किया। बस, यही परिवार है। कमरे में गया, तो देखा ख़तों का एक दफ्तर फैला हुआ है। ख़तों को सुरक्षित रखने की तो इनकी आदत नहीं। इतने ख़त किसके हैं । कुतूहल से पूछा-यह क्या कूड़ा फैला रखा है जी, समेटो।