ढपोरसंख 3 विश्वास बहुत जल्द आ जाता है। और जब किसी लेखक का मुआमला हो, तो मेरी विश्वास-क्रिया और भी तीव्र हो जाती है। मैं अपने एक मित्र को जानता हूँ, जो साहित्यवालों के साये से भागते हैं। वह खुद निपुण लेखक हैं, बड़े,ही सज्जन हैं, बड़े ही जिंदा-दिल । अपनी शादी करके लौटने पर जब-जब रास्ते में मुझसे भेंट हुई, कहा-आपकी मिठाई रखी हुई है, भेजवा दूगा; पर वह मिठाई आजतक न आई, हालांकि अब ईश्वर की दया से विवाह-तरु में फल भी लग आये, लेकिन खैर, मैं साहित्य-सेवियों से इतना चौकन्ना नहीं रहता। इन पत्रों मे इतनी विनय, इतना आग्रह, इतनी भक्ति होती थी, कि मुझे जोशी से विना साक्षात्कार के ही स्नेह हो गया। मालूम हुआ, एक बड़े बापका वेटा है, घर से इसलिए निर्वासित है, कि उसके चाचा दहेज की लबी रकम लेकर उसका विवाह करना चाहते थे, यह उसे मजूर न हुआ । इसपर चाचा ने घर से निकाल दिया। बाप के पास गया । बाप अादर्श भायप-भक्त था। उसने चाचा के फैसले की अपील न सुनी। ऐसी दशा में सिद्धात का मारा युवक सिवाय घर से बाहर निकल भागने के और क्या करता ? यों वन-वन के पत्त तोडता, द्वार-द्वार ठोकर खाता वह ग्वालियर आ गया था। उसपर मंदाग्नि का रोगी, जीर्ण ज्वर से ग्रस्त । श्राप ही बतलाइए, ऐसे आदमी से क्यों श्रापको सहानुभूति न होती ? फिर जब एक आदमी आपको 'प्रिय भाई साहब लिखता है, अपने मनोरहस्य आपके सामने खोलकर रखता है, विपिति में भी धैर्य और पुरुषार्थ को हाथ से नहीं छोड़ता, कड़े से कड़ा परिश्रम करने को तैयार है, तो यदि आपमें सौजन्य का अणुमात्र भी है, तो आप उसकी मदद जरूर करेंगे। अच्छा, अब फिर ड्रामे की तरफ आहए। कई दिनों बाद जोशी का पत्र प्रयाग से आया । वह वहां के एक मासिक-पत्रिका के सम्पादकीय विभाग में नौकर हो गया था। यह पत्र पाकर मुझे कितना संतोप और आनंद हुया. कह नहीं सकता । कितना उद्यमशील श्रादमी हैं ! उसके प्रति मेरा स्नेह और भी प्रगाढ़ हो गया। पत्रिका का स्वामी संपादक सजी ते जरा सी देर हो जाने पर दिन-भर की मजदूरी काट लेता . धुड़कियाँ जमाता था; पर यह सत्याग्रही वीर सब कुछ तह €
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