पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/६१

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६० मानसरोवर रुपया इधर के चार अाने बराबर समझो। कैसे उसका काम चलता था, ईश्वर ही जाने। कई दिन के बाद एक लंबा पत्र पाया। एक जर्मन एजेंसी उसे रखने पर तैयारी थी ; अगर वह तुरंत सौ रुपये की जमानत दे सके । एजेसी यहाँ की फौजों में जूते, सिगार, साबुन आदि सप्लाई करने का काम करती थी। अगर यह जगह मिल जाती, तो उसके दिन आराम से कटने लगते । लिखा था, अब ज़िदगी से तंग आ गया हूँ | हिम्मत ने जवाब दे दिया । आत्महत्या करने के सिवाय और कोई उपाय नहीं सूझता। केवल माताजी की चिंता है। रो रोकर प्राण दे देगी। पिताजी के साथ उन्हें शारीरिक सुखों की कमी नहीं ; पर मेरे लिए उनकी आत्मा तड़पती रहती है। मेरी यही अभिलाषा है, कि कहीं बैठने का ठिकाना मिल जाता, तो एक बार उन्हें अपने साथ रखकर उनकी जितनी सेवा हो सकती, करता । इसके सिवा मुझे कोई इच्छा नहीं है , लेकिन जमानत कहाँ से लाऊँ ? बस, कल का दिन और है। परसों कोई दूसरा उम्मेदवार जमानत देकर यह ले लेगा और मै ताकता रह जाऊँगा । एजेट मुझे रखना चाहता है । लेकिन अपने कार्यालय के नियमों को क्या करे। इस पत्र ने मेरी कृपण प्रकृति को भी वशीभूत कर लिया । इच्छा हो जाने पर कोई न कोई राह निकल आती है। मैंने रुपये भेजने का निश्चय कर लिया। अगर इतनी मदद से एक युवक का जीवन सुधर रहा हो, तो कौन ऐसा है, जो मुँह छिपा ले। इससे बड़ा रुपयो का और क्या सदुपयोग हो सकता है। हिंदी कलम घिसनेवालो के पास इतनी बड़ी रकम ज़रा मुश्किल ही से निकलती है ; पर सयोग से उस वक्त मेरे कोष मे रुपए मौजूद ये । मैं इसके लिए अपनी कृपणता का ऋणी हूँ। देवीजी से 'सलाह की । वह बड़ी खुशी से राजी हो गई, हालांकि अब सारा दोष मेरे ही सिर मढा जाता है । कल रुपयों का पहुंचना आवश्यक था, नहीं तो अवसर हाथ से निकल जायगा। मनीआर्डर तीन दिन मे पहुंचेगा । तुरत तारघर गया और तार से रुपये भेज दिये। जिसने बरसों की कतर-ब्योंत के बाद इतने रुपये जोड़े हों और जिसे भविष्य भी अभावमय ही दीखता हो, वही उस अानद