पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/६३

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मानसरोवर , जाकर रात भर पड़ा रोता रहता हूँ, आदि । मुझे इन पत्रों मेव ह अपने आदर्श से गिरता हुआ मालूम हुआ। मैंने उसे समझाया, लगी रोजी न छोड़ो, काम किये जाओ । जवाब आया, मुझसे अब यहां नहीं रहा जाता। फौजियों का व्यवहार असह्य है । फिर, मैनेजर साहब मुझे रगून भेज रहे हैं और रगून मैं बच नहीं सकता । मैं कोई साहित्यिक काम करना चाहता हूँ। कुछ दिन आपकी सेवा मे रहना चाहता हूँ। मैं इस पत्र का जवाब देने जा ही रहा था, कि फिर पत्र अाया। मैं कला देहरादून-एक्सप्रेस से पा रहा हूँ। दूसरे दिन वह ना पहुंचा। दुबला-सा आदमी, सांवला रंग, लंबा मुंह, बड़ी-बड़ी आँखे, अँग्रेज़ी वेश, साथ में कई चमड़े के ट्रक, एक सूट वेस, एक होल्डाल । मै तो उसका ठाट देखकर दग रह गया । देवीजी ने टिप्पणी की-फिर भी तो न चेते! मैंने समझा था, गाढ़े का कुर्ता, चप्पल, ज्यादा-से-ज्यादा फाउन्टेनपेन- वाला आदमी होगा; मगर यह महाशय तो पूरे साहब बहादुर निकले । मुझे इस छोटे-से घर मे उन्हें ठहराते हुए सकोच हुअा। देवीजी से बिना बोले न रहा गया-आते ही श्री-चरणो पर सिर तो रख दिया, अब और क्या चाहते थे ! ढपोरसख अबकी मुसकिराये-देखो श्यामा, बीच बीच में टोको मत । अदालत की प्रतिष्ठा यह कहती है कि अभी चुपचाप सुनती जाओ। जब तुम्हारी बारी आये, तो जो चाहे, कहना । फिर सिलसिला शुरू हुआ था तो दुबला-पतला ; मगर बड़ा फुर्तीला, बातचीत मे बड़ा चतुर, एक जुमला अग्रेज़ी बोलता, एक जुमला हिंदी, और हिंदी भी अंग्रेज़ी की खिचड़ी, जैसे आप जैसे सभ्य लोग बोलते हैं । बात-चीत शुरू हुई-आपके दर्शनों की बड़ी इच्छा थी। मैंने जैसा अनुमान किया था, वैसा ही आपको देखा । बस, अब मालूम हो रहा है, कि मैं भी आदमी हूँ। इतने दिनो तक कैदी था। मैने कहा-तो क्या इस्तीफा दे दिया ? 'नहीं, अभी तो छुट्टी लेकर आया हूँ। अभी इस महीने का वेतन भी नहीं मिला । मैंने लिख दिया है, यहाँ के पते से भेज दे। नौकरी तो अच्छी है ;