पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/६८

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ढपोरसख मैं दिल में खुश था, कि चलो अच्छा हुआ, जोशी के लिए अच्छा सिलसिला निकल आया। मुझे यह आशा भी बंध-चली, कि अबकी उसे वेतन मिलेगा, तो मेरे रुपये देगा। चार-पांच महीने मे चुकता कर देगा। हिसाब लगाकर देखा, तो अच्छी खासी रकम हो गई थी। मैंने दिल में समझा, यह भी अच्छा ही हुआ। यों जमा करता, तो कभी न जमा होते । इस बहाने से किसी तरह जमा तो हो गये। मैंने यह सोचा कि अपने मित्र से नोशी के वेतन वे रुपये पेशगी क्यों न ले लू, कह दूं, उसके वेतन से महीने- महीने काटते रहिएगा। लेकिन अभी मुश्किल से एक सप्ताह हुआ होगा कि एक दिन देखता हूँ, तो जोशो और माथुर, दोनों चले आ रहे हैं । मुझे भय हुआ, कहीं जोशाजी फिर तो नहीं छोड़ आये ; लेकिन शका को दबाता हुश्रा बोला-कहो भई, कब आये ? मजे मे तो हो ? जोशी ने बैठकर एक सिगार जलाते हुए कहा-बहुत अच्छी तरह हूँ। मेरे बाबू साहब बड़े ही सजन श्रादमी हैं । मेरे लिए अलग एक कमरा खाली करा दिया है । साथ ही खिलाते हैं । बिलकुल भाई की तरह रखते हैं। अाजकल किसी काम से दिल्ली गये हैं । मैंने सोचा, यहाँ पड़े-पड़े क्या करूँ, तब तक आप ही लोगों से मिलता आऊँ । चलते वक्त बाबू साहब ने मुझसे कहा था, मुरादाबाद से थोड़े-से वरतन लेते अाना ; मगर शायद उन्हें रुपये देने की याद नहीं रही । मैंने उस वक्त मांगना भी उचित न समझा । आप एक पचास रुपये दे दीजिएगा । मैं परसों तक जाऊँगा और वहां से जाते-ही- जाते भेजवा दूंगा। श्राप ता जानते हैं, रुपये के मुश्रामले में वे कितने , खरे हैं । मैंने जरा रुखाई के साथ कहा-रुपये तो इस वक्त मेरे पास नहीं हैं। देवीजी ने टिप्पणी की-क्यों झूठ बोलते हो ? तुमने रुखाई से कहा था, कि रुपये नहीं हैं ? ढपोरसख ने पूछा-और क्या चिकनाई के साथ कहा था ? देवीजी-तो फिर काग़ज़ के रुपये वयो दे दिये थे ? बड़ी रुखाई करनेवाले ढपोरसख--अच्छा साहब, मैंने हँसकर रुपये दे दिये । वस, अब खुश