पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/७४

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"ढंपोरसंख पोर० -मगर जोशी ने कई महीने तक तुम्हारी सहायता तो खूब की ? माथुर-मेरी सहायता वह क्या करता । हाँ, दोनों जून भोजन भले कर लेता था। ढपोर०-तुम्हारे नाम पर उसने मुझसे जो रुपए लिये थे, वह तो तुम्हें दिये होंगे? माथुर-क्या मेरे नाम पर भी कुछ रुपये लिये थे ? ढपोर०-हाँ भाई, तुम्हारे घर का किराया देने के लिए तो ले गया था। माथुर-सरासर वेईमानी । मुझे उसने एक पैसा भी नहीं दिया, उलटे और एक महाजन से मेरे नाम पर सौ रुपयो का स्टाम्प लिखकर रुपये लिये। मैं क्या जानता था, कि धोखा दे रहा है। सयोग से उसी वक्त आगरे के वह सज्जन आ गये, जिनके पास जोशी कुछ दिनों रहा था। उन्होंने माथुर को देखकर पूछा-अच्छा! आप अभी जिंदा हैं । जोशी ने तो कहा था, माथुर मर गया है। माथुर ने हँसकर कहा--मेरे तो सिर मे दर्द भी नहीं हुआ। ढपोरसंख ने पूछा- अच्छा अापके मुरादाबादी बरतन तो पहुँच गये? आगरा-निवासी मित्र ने कुतूहल से पूछा--कैसे मुरादाबादी बरतन ? 'वही जो आपने जोशी की मारफत मॅगवाये थे। 'मैंने कोई चीज़ उसकी मारफत नहीं मॅगवाई। मुझे ज़रूरत होती तो । आपको सीधा न लिखता" माथुर ने हँसकर कहा--तो यह रुपये भी उसने हज़म कर लिये। आगरा निवासी मित्र बोले--मुझसे भी तो तुम्हारी, मृत्यु के बहाने सौ रुपये लाया था। यह तो एक ही जालिया निकला। उफ ! कितना बड़ा चकमा दिया है इसने ! जिन्दगी मे यह पहला मौका है, कि मैं यों वेवकूफ बना । बचा को पा जाऊँ, तो तीन साल को भेजवाऊँ। कहाँ है आजकल ? माथुर ने कहा--अभी तो ससुराल में है। ढपोरसख का वृत्तान्त समाप्त हो गया । जोशी ने उन्हीं को नहीं, माथुर- जैसे और ग़रीब आगरा-निवीसी सज्जन जैसे घाघ को भी उलटे छुरे से मूड़ा और अगर भडा न फूट गया होता,तो अभी न-जाने कितने दिनों तक मूड़ता। .