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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/७६

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ढपोरसंख - मैंने कृत्रिम गभीरता से अपना निर्णय सुनाया-मेरे मित्र ने कुछ भावु- कता से अवश्य काम लिया है ; पर उनकी सज्जनता निर्विवाद है। ढपोरसख उछल पड़े और मेरे गले लिपट गये। देवीजी ने सगर्व नेत्रों से देखकर कहा-यह तो मै जानती ही थी, कि चोर-चोर मौसेरे भाई होंगे। तुम दोनो एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हो । अब तक रुपये में एक पाई मर्दो का विश्वास था । आज तुमने वह भी उठा दिया । आज निश्चय हुआ, कि पुरुष, छली, कपटी विश्वासघाती और स्वार्थी होते हैं। मैं इस निर्णय को नहीं मानती। मुफ्त में ईमान बिगाड़ना इसी को कहते हैं । भला मेरा पक्ष लेते, तो अच्छा भोजन मिलता ; उनका पक्ष लेकर आपको सड़े सिगरेटों के सिवा और क्या हाथ लगेगा। खैर, हाड़ी गई तो गई, कुत्ते की जात तो पहचानी गई। उस दिन से दो-तीन बार देवीजी से भेट हो चुकी है, और वही फटकार सुननी पड़ी है । वह न क्षमा चाहती हैं, न क्षमा कर सकती हैं।