पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/७७

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डिमांसट्रेशन महाशय गुरुप्रसादजी रसिक जीव हैं, गाने-बजाने का शौक है, खाने- खिलाने का शौक़ है और सैर-तमाशे का शौक़ है पर उसी मात्रा मे द्रव्यो. पार्जन का शौक़ नहीं है । यो वह किसी के मुंहताज नहीं हैं, भले आदमियों की तरह रहते हैं और हैं भी भले आदमी ; मगर किसी काम में चिमट नहीं सकते । गुड़ होकर भी उनमें लस नहीं है । वह कोई ऐसा काम उठाना चाहते हैं, जिसमें चटपट कारूँ का खजाना मिल जाय और हमेशा के लिए बेफिक्र हो जायें । बैंक से छमाही सूद चला आये, खायें और मजे से पड़े रहे ; किसी ने सलाह दी, नाटक-कम्पनी खोलो। उनके दिल में भी बात जम गई। मित्रो को लिखा-मैं ड्रामेटिक कपनी खोलने जा रहा हूँ, आप लोग ड्रामे लिखना शुरू कीजिए । कपनी का प्रासपेक्टस बना, कई महीने उसकी खूब चर्चा रही, कई बड़े-बड़े आदमियों ने हिस्से ख़रीदने के वादे किये । लेकिन न हिस्से बिके, न कपनी खड़ी हुई, हाँ इसी धुन में गुरु- प्रसादजी ने एक नाटक की रचना कर डाली। और यह फिक्र हुई कि इसे किसी कपनी को दिया जाय । लेकिन यह तो मालूम ही था, कपनीवाले एक ही घाघ होते हैं । फिर हरेक कपनी में उसका एक नाटककार भी होता है। वह कब चाहेगा कि उसकी कपनी से किसी बाहरी आदमी का प्रवेश हो । वह इस रचना मे तरह-तरह के ऐब निकालेगा और कानी के मालिक को भड़का देगा । इसलिए प्रबंध किया गया, कि मालिकों पर नाटक का कुछ ऐसा प्रभाव जमा दिया जाय कि नाटककार महोदय की कुछ दाल न गल सके । पाँच सज्जनों की एक कमेटी बनाई गई, उसमे सारा प्रोग्राम विस्तार के साथ तय किया गया और दूसरे दिन पाँचो सज्जन गुरुप्रसादजी के साथ नाटक दिखाने चले ! तांगे आ गये । हारमोनियम तबला आदि सब उसपर रख दिये गये ; क्योंकि नाटक का डिमासट्रेशन (demonstration) करना निश्चित हुया था। सहसा विनोदबिहारी ने कहा-यार, तांगे पर जाने में तो कुछ बदरोबी