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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 4.djvu/८१

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pl . - , मानसरोवर । मस्तराम-रोज़ ही तो किसी-न-किसी कंपनी का श्रादमी सिर पर सवार रहता है ; मगर बाबू साहब किसी से सीधे मुँह बात तहीं करते । विनोद-बस एक यह कंपनी है, जिसके तमाशों के लिए दिल बेक़रार रहता है, नहीं तो और जितने ड्रामे खेले जाते हैं दो कौड़ी के । मैंने तमाशा देखना ही छोड़ दिया। गुरुप्रसाद-नाटक लिखना बच्चों का खेल नहीं है ; खूने जिगर पीना पड़ता है। मेरे ख़याल मे एक नाटक लिखने के लिए पांच साल का समय भी काफी नहीं। बल्कि अच्छा ड्रामा जिंदगी में एक ही लिखा जा सकता है । यो कलम घिसना दूसरी बात है। बड़े-बड़े धुरंधर अालोचको का यहो निर्णय है कि आदमी जिंदगी में एक ही नाटक लिख सकता है । रूस, फ्रास, जर्मनी सभी देशो के ड्रामे पढ़े ; पर कोई न कोई दोष सभी में मौजूद । किसी मे भाव है तो भाषा नहीं, भाषा है तो भाव नहीं। हास्य है तो गान नहीं, गान है तो हास्य नहीं। जब तक भाव, भाषा, हास्य और गान यह चारो अग पूरे हो, उसे ड्रामा कहना ही न चाहिए। मैं तो बहुत ही तुच्छ आदमी हूँ, कुछ आप लोगों की सोहबत में शुदबुद आ गया। मेरी रचना की हस्ती ही क्या । लेकिन ईश्वर ने चाहा, तो ऐसे दोष आपको न मिलेगे । विनोद-जब श्राप उस विषय के ममज्ञ हैं, तो दोष रह ही कैसे सकते हैं । रसिकलाल--दस साल तक तो आपने केवल संगीत कला का अभ्यास किया है। घर के हजारों रुपये उस्तादों को भेट कर दिये, फिर भी दोष रह जाय, तो दुर्भाग्य है। रिहसल- रिहर्सल और वाह ! वाह ! हाय ! हाय ! का तार बँधा। कोरस सुनते ही ऐक्टर और प्रोप्राइटर और नाटककार सभी मानो जाग पड़े। भूमिका ने उन्हें विशेष प्रभावित न किया थी; पर असली चीज़ सामने आते ही आँखे खुलीं। समां बँध गया । पहला सीन आया। आँखों के सामने वाजिद- अली शाह के दर्बार की तसवीर खिंच गई। दरबारियों की हाजिर-जवाबी और फड़कते हुए लतीफे ! वाह ! वाह ! क्या कहना है ! क्या वाक्य-रचना थी, क्या शब्द योजना थी; रसों का कितना सुरुचि से भरा हुआ. समावेश था !