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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/१०९

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चोरी १०५ के सब लोग काम-धन्धे में लग गये, तो आपने चारपाई खड़ी को, और उस पर चढ़- कर एक रुपया निकाल लिया। उस वक्त तक हमने कभी रुपया छुआ तक न था। वह रुपया देखकर आनन्द और भय की जो तरगें दिल में उठीं, वे अभी तक याद हैं , हमारे लिए रुपया एक अलभ्य वस्तु थी। सौलवी साहब को हमारे यहाँ से सिर्फ वारह आने मिला करते थे। महीने के अन्त में चचाजी खुद जाकर पैसे दे आते थे। हमारा इतना भी विश्वास न था। वही हम आज एक रुपये के छत्रपति राजा थे। भला कौन हमारे गर्व का अनुमान कर सकता है ! लेकिन मार का भय आनन्द में विन डाल रहा था। रुपये अनगिनती तो थे नहीं। चोरी का खुल जाना मानी हुई बात थी। चचाजी के क्रोध का भी, मुझे तो नहीं, हलवर को प्रत्यक्ष अनुभव हो चुका था। यों उनसे ज्यादा सीधा-सादा आदमी दुनिया में न था। चची ने उनकी रक्षा का भार सिर पर न लिया होता, तो कोई वनिया उन्हें वाज़ार में बेच सकता था, पर जव क्रोध आ जाता, तो फिर उन्हें कुछ न सूझता। और तो और, चची भी उनके क्रोध का सामना करते डरती थी। हम दोनो ने कई मिनट तक इन्हों बातों पर विचार किया, ओर आखिर यही निश्चय हुआ कि आई हुई लक्ष्मी को न जाने देना चाहिए। एक तो हमारे ऊपर सदेह होगा ही नहीं, और अगर हुआ भी, तो हम साफ इनकार कर जायँगे- कहेगे हम रुपया लेकर क्या करते, हमारी नगा-झोली ले लीजिए। शायद और शात चित्त से विचार करते, तो यह निश्चय पलट जाता, और वह वीभत्स लोला न होती, जो आगे चलकर हुई, पर उस समय हममे शाति से विचार करने को क्षमता ही न थी। मुँह-हाथ धोकर हम दोनों घर आये और डरते-डरते अन्दर कदम रखा । अगर कहीं इस वक्त तलाशी की नौबत आई, तो फिर भगवान् ही मालिक हैं, लेकिन सब लोग अपना-अपना काम कर रहे थे। कोई हमसे न वोला। हमने नाश्ता भी न किया, चवेना भी न लिया, किताव बगल में दवाई ओर मदरसे का रास्ता लिया । बरसात के दिन थे। आकाश पर वादल छाये हुए थे। हम दोनों खुश-खुश मकतब चले जा रहे थे। आज काउसिल की मिनिस्टो पाकर भी शायद उतना आनन्द न हो। हज़ारो मसूबे बाँधते थे, हजारों हवाई किले बनाते थे। यह अवसर बड़े भाग्य से मिला था। जीवन मे फिर शायद हो यह अवसर मिले। इसलिए रुपये 2