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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/११०

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१०६ मानसरोवर . को इस तरह खर्च करना चाहते थे कि ज्यादा-से-ज्यादा दिनो तक चल सके। यद्यपि उन दिनो पांच आने सेर बहुत अच्छी मिठाई मिलती थी और शायद आध सेर मिठाई में हम दोनों अफर जाते, लेकिन यह खयाल हुआ कि मिठाई खायेंगे, तो रुपया आज ही गायव हो जायगा। कोई सस्ती चीज खानी चाहिए, जिसमे मज़ा भी आये, पेट भी भरे, और पैसे भी कम खर्च हों। आखिर अमरुदो पर हमारी नज़र गई । हम दोनों राजी हो गये। पैसे के अमरूद लिये। सस्ता समय था, बड़े-बड़े बारह अमरूद मिले । हम दोनों के कुतों के दामन भर गये । जव हलधर ने खटकिन के हाथ में रुपया रखा, तो उसने सदेह से देखकर पूछा-- रुपया कहाँ पाया, लाला ? चुरा तो नहीं लाये। स्वाब हमारे पास तैयार था। ज्यादा नहीं, तो दो-तीन किताबें तो पढ़ ही चुके थे। विद्या का कुछ-कुछ असर हो चला था। मैंने झट से कहा-मौलवी साहब की फीस देनी है। घर मे पैसे न थे, तो चचाजी ने रुपया दे दिया । इस जवाब ने खटकिन का सन्देह दूर कर दिया। हम दोनों ने एक पुलिया पर बैठकर खूब अमरूद खाये, मगर अब साढे पद्रह आने पैसे कहाँ ले जायें! एक रुपया छिपा लेना तो इतना मुश्किल काम न था। पैसों का ढेर कहाँ छिपता 2 न कमर मे इतनी जगह थी और न जेव में इतनी गुजाइश । उन्हे अपने पास रखना अपनी चोरी का ढिढोरा पीटना था। बहुत सोचने के बाद यह निश्चय किया कि वारह आने तो. मौलवी साहब को दे दिये जायें, शेप साढे तीन आने की मिठाई उड़े। यह फैसला करके हम लोग मकतब पहुँचे। आज कई दिन के बाद गये थे। मौलवी साहब ने बिगड़कर पूछा-- इतने दिन कहाँ रहे ? -मौलवी साहब, घर में ग़मी हो गई थी। यह कहते-ही-कहते बारह आने उनके सामने रख दिये । फिर क्या पूछना था । पैसे देखते ही मौलवी साहव की बाछे खिल गई। महीना खत्म होने में अभी कई दिन वाकी थे। साधारणत महीना चढ़ जाने और वार-वार तकाज़ करने पर कहीं पैसे मिलते थे । अवकी इतनी जल्दी पैसे पाकर उनका खुश होना कोई अस्वाभाविक बात न थी। हमने अन्य लड़कों की ओर सगर्व नेत्रों से देखा, मानो कह रहे हॉ-एक तुम हो कि मांगने पर भी पैसे नहीं देते, एक हम हैं कि पेशगी देते हैं। हम अभी सबक पढ ही रहे थे कि मालूम हुआ, आज तालाव का मेला है, मैंने कहा-