११० मानसरोवर को जान का खतरा हो, तो झूठ बोलना क्षम्य है । हलधर मार खाने के आदी थे, दो-चार चूंसे और पड़ने से उनका कुछ न बिगड़ सकता था। मैंने मार कभी न खाई थी। मेरा तो दो ही चार जूं सों में काम तमाम हो जाता। फिर हलधर ने भी तो अपने को बचाने के लिए मुझे फंसाने की चेष्टा की थी, नहीं तो चची मुझसे यह क्यों पूछतीं-रुपया तूने चुराया, या हलधर ने ? किसी भी सिद्धान्त से मेरा झूठ वोलना इस समय स्तुल्य नहीं, तो क्षम्य ज़रूर था। मैंने छूटते ही कहा-हलधर कहते थे, किसी से बताया, तो मार ही डालूंगा। अम्मा-देखा, वही बात निकली न ! मैं तो कहतो ही थी कि बच्चा की ऐसी आदत नहीं ; पैसा हो तो हाथ से छूता ही नहीं , लेकिन सब लोग मुझो को उल्ल बनाने लगे। हल०-मैंने तुमसे कब कहा था कि वताओगे, तो मारूँगा ? मैं-वहीं तालाब के किनारे तो! हल०-अम्मा, विलकुल झूठ है ! चची-झूठ नहीं, सच है। झुठा तो तू है, और तो सारा ससार सच्चा है । तेरा नाम निकल गया है न ! तेरा बाप भो नौकरी करता, बाहर से रुपये कमा लाता, चार जने उसे भला आदमी कहते, तो तू भी सञ्चा होता। अब तो तू ही झूठा है। जिसके भाग में मिठाई लिखी थी, उसने मिठाई खाई। तेरे भाग में तो लात खाना ही लिखा था। यह कहते हुए चची ने हलधर को खोल दिया, और हाथ पकडकर भीतर ले गई। मेरे विषय में स्नेह-पूर्ण आलोचना करके अम्मां ने पासा पलट दिया था, नहीं तो अभी बेचारे पर न-जाने कितनी मार पड़ती। मैंने अम्मों के पास बैठकर अपनी निर्दोषिता का राग खूब अलापा । मेरी सरल हृदया माता मुझे सत्य का अवतार सम- झती थीं। उन्हें पूरा विश्वास हो गया कि सारा अपराध हलधर का है । एक क्षण बाद मैं गुड़-चबेना लिये कोठरी से बाहर निकला। हलधर भी उसी वक्त चिउड़े खाते हुए बाहर निकले । हम दोनों साथ-साथ बाहर आये और अपनी-अपनी बीती सुनाने लगे। मेरी कथा सुखमय थी, हलधर की दु खमय ; पर अन्त दोनों का एक था- . गुड़ और चबेना ।
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/११४
दिखावट