पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/१३३

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लाछन १२९ रहा है कि क्या कहूँ । कैसी प्यारी-प्यारी बच्ची थी कि देखकर दुख दूर हो जाता था। मुझे देखते ही मुन्नू-मुन्नु करके दौड़ती थी ; जब गैरों का यह हाल है, तो हजूर के दिल पर जो कुछ बीत रही होगी, हजूर ही जानते होंगे। श्याम बाबू कुछ नर्म होकर बोले-ईश्वर की मरजी में इन्तजाम का क्या चारा? मेरा तो घर ही अँधेरा हो गया। अब यहाँ रहने को जी नहीं चाहता। मुन्नू-मालकिन तो और भी बेहाल होंगी ! श्याम-हुआ ही चाहें । मैं तो उसे शाम-सबेरे खिला लिया करता था। मा तो दिन-भर साथ रहती थी। मैं तो काम-धन्धों में भूल भी जाऊँगा। वह कहां भूल सकती हैं । उनको तो सारी जिन्दगी का रोना है। पति को मुन्नू से बातें करते सुनकर देवी ने कोठे पर से आँगन की ओर देखा। मुन्नू को देखकर उसकी आँखों में बे-अख्तियार आंसू भर आये। बोली-मुन्नू, तो लुट गई ! मुन्नू-हजूर अव सवर कीजिये, रोने-धोने से क्या फायदा ? यही सव अन्धेर देखकर तो कभी-कभी अल्लाह मियों को जालिम कहना पड़ता है। जो बेईमान हैं, दूसरों का गला काटते फिरते हैं, उनसे अल्लाह मियां भी डरते हैं। जो सीधे और सच्चे हैं, उन्हीं पर आफत आती है। मुन्नू देवी को दिलासा देता रहा । श्याम बाबू भी उसकी बातों का समर्थन करते जाते थे। जब वह चला गया, तो वाबू साहब ने कहा-आदमी तो कुछ बुरा नहीं मालूम होता। देवी ने कहा-मोहब्बती आदमी है। रज न होता तो यहाँ क्या आता । (c) पद्रह दिन गुज़र गये। बाबू साहब फिर दफ्तर जाने लगे। सुन्नू इसी बीच में फिर कभी न आया। अब तक तो देवी का दिन पति से बातें करने मे कट जाता था, लेकिन अब उनके चले जाने पर उसे बार-बार शारदा की याद आतो। प्रायः सारा दिन रोते ही कटता था। मुहल्ले की दो-चार नीच जाति की औरतें आती थीं; लेकिन देवी का उनसे मन न मिलता था, वे झूठी सहानुभूति सिखाकर देवी से कुछ ऐठना चाहती थीं।