अग्नि-समाधि १६९ - विछी हुई थीं। रात में भी उनका सुनहरा रग झलक रहा था। आग की एक लपट, केवल एक ज़रा-सी चिनगारो सारे हार को भरम कर देगी। सारा गाँव तबाह हो जायगा । इसी हार से मिले हुए दूसरे गांव के हार भी थे। वे भी जल उठेगे। ओह । लपटें बढती जा रही हैं । अब विलव करने का समय न था । पयाग ने अपना उपला और चिलम वहीं पटक दिया और कधे पर लोहवद लाठी रखकर बेतहाशा मडैया की तरफ दौड़ा। मेंडो से जाने में चक्कर था, इसलिए वह खेतों में से होकर भागा जा रहा था। प्रतिक्षण ज्वाला प्रचडतर होती जाती थी और पयाग के पाँव ओर भो तेजी से उठ रहे थे। कोई तेज घोड़ा भी इस वक्त उसे पा न सकता। अपनी तेज़ी पर उसे स्वय आश्चर्य हो रहा था। जान पड़ता था, पाँव भूमि पर पड़ते हो नहीं। उसकी आँखें मईया पर लगो हुई थीं-दाहिने-वायें उसे और कुछ न सूझता था। इसी एकाग्रता ने उसके पैरो में पर लगा दिये थे। न दम फूलता था, न पाँव थकते थे। तीन-चार फरलौंग उसने दो मिनट में तय कर लिये और मडैया के पास जा पहुँचा । मडैया के आसपास कोई न था। किसने यह कर्म किया है यह सोचने का मौका न था । उसे खोजने की तो बात ही और थी। पयाग का सदेह रुक्मिन पर हुआ। पर यह क्रोध का समय न था। ज्वालाएँ कुचाली वालों की भाँति ठटा मारती, धक्कम-धका करती, कभी दाहिनी ओर लपकती और कभी वार्ड तरफ । वस, ऐसा मालूम होता था कि लपट अब खेत तक पहुँची, अब पहुँची, मानो ज्वालाएँ आग्रह-पूर्वक क्यारियों की ओर बढ़ती और असफल होकर दूसरी बार फिर दूने वेग से लपकती थीं। आग कैसे बुझे ! लाठी से पीटकर वुझाने का गौ न था । वह तो निरी सूर्तता थी। फिर क्या हो । फसल जल गई, तो फिर वह किसी को मुँह न दिखा सकेगा। आह ! गाँव में कोहराम मच जायगा। सर्वनाश हो जायगा। उसने ज्यादा नहीं सोचा। गँवारों को सोचना नहीं आता। पयाग ने लाठो सँभाली, ज़ोर से एक छलाँग मारकर आग के अन्दर मडैया के द्वार पर जा पहुँचा, जलती हुई मडैया को अपनी लाठी पर उठाया और उसे सिर पर लिये सबसे चौड़ो मेड़ पर गांव की तरफ भागा। ऐसा जान पड़ा, मानो कोई अग्नियान हवा में उड़ता चला जा रहा है। फूस की जलती हुई वज्जियाँ उसके ऊपर गिर रही थीं, पर उसे इसका ज्ञान तक न होता था । एक बार एक मूठा अलग होकर उसके हाथ पर गिर पड़ा। सारा हाथ भुन गया।
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/१७३
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