सुजान भगत . ( १ ) सीधे-साटे किसान धन हाथ आते ही धर्म और कीति की ओर झुकते हैं। दिव्य समाजकी भांति वे पहले अपने भोग-विलास की ओर नहीं दौड़ते । सुजान की खेती में कई साल से कचन बरस रहा था। मेहनत तो गांव के सभी किसान करते थे, पर सुजान के चंद्रमा बली थे, ऊसर में भी दाना छोट आता, तो कुछ-न-कुछ पैदा हो जाता था। तीन वर्ष लगातार ऊख लगती गई। उधर गुड़ का भाव तेज़ था। कोई दो-ढाई हज़ार हाथ में आ गये। बस, चित्त की वृत्ति वर्म की ओर झुक पड़ी । साधु- सतों का आदर-सत्कार होने लगा, द्वार पर, धूनी जलने लगो, कानूनगो इलाक में आते, तो सुजान महतो के चौपाल में ठहरते, हल्के के हेड कांस्टेबिल, थानेदार, शिक्षा-विभाग के अफसर, एक न-एक उस चौपाल में पड़ा ही रहता। महतो मारे खुशी के फूले न समाते। धन्य भाग ! उनके द्वार पर अब इतने बड़े-बड़े हाकिम आकर ठहरते हैं। जिन हाकिमों के सामने उनका मुंह न खुलता था, उन्हीं की अब महतो-महतो कहते ज़बान सूखती थी। कभी-कभी भजन-भाव हो जाता । एक महात्मा ने डौल अच्छा देखा तो गांव में आसन जमा दिया। गाँजे ओर चरस को वहार उड़ने लगी। एक ढोलक आई, सँजीरे मंगवाये गये, सत्सग होने लगा। यह सब सुजान के दम का जलूस था। घर में सेरों दूव होता, मगर सुजान के कठ-तले एक वूद जाने की भी कसम थी। कभी हाकिम लोग चखते, कभो महात्मा लोग। किसान को दूध-घी से क्या मतलब, उसे तो रोटी और साग चाहिए। सुजान की नम्रता का अब वारापार न था। सबके सामने सिर झुकाये रहता, कहीं लोग यह न कहने लगे कि धन पाकर इसे घमड हो गया है। गांव में कुल तीन हो कुएँ थे, बहुत से खेतों में पानी न पहुँचता था, खेती मारी जाती थी। सुजान ने एक पक्का कुओं बनवा दिया । कुएँ का विवाह हुआ, यज्ञ हुआ, ब्रह्मभोज हुआ, जिस दिन कुएं पर पहली
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