पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/१७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सुजान भगत १७३ बार पुर चला, सुजान को मानो चारों पदार्थ मिल गये। जो काम गांव में किसी ने न किया था, वह बाप-दादा के पुण्य-प्रताप से सुजान ने कर दिखाया। एक दिन गांव में गया के यात्री आकर ठहरे। सुजान ही के द्वार पर उनका भोजन बना। सुजान के मन मे भी गया करने की बहुत दिनो से इच्छा थी। यह अच्छा अवसर देखकर वह भी चलने को तैयार हो गया। उसकी स्त्री वुलाकी ने कहा- अभी रहने दो, अगले साल चलेंगे। सुजान ने गभीर भाव से कहा-अगले साल क्या होगा, कौन जानता है। धर्म के काम में मीन-मेष निकालना अच्छा नहीं। जिंदगानी का क्या भरोसा ! बुलाको - हाथ खाली हो जायगा। सुजान - भगवान् की इच्छा होगी, तो फिर रुपये हो जायगे। उनके यहाँ किस बात की कमी है। वुलाकी इसका क्या जबाव देती। सत्कार्य में बाधा डालकर अपनी मुक्ति क्यो विगाइती ? प्रात काल स्त्री और पुरुष गया करने चले। वहाँ से लौटे, तो यज्ञ और ब्रह्मभोज की ठहरी । सारी विरादरी निमत्रित हुई, ग्यारह गांवों में सुपारी बटी। इस धूम-धाम से कार्य हुआ कि चारों ओर वाह-वाह मच गई। सव यही कहते कि भग- वान् धन दे तो दिल भी ऐसा ही दे । घमड तो छू नहीं गया, अपने हाथ से पत्तल उठाता फिरता था, कुल का नाम जगा दिया। बेटा हो, तो ऐसा हो। वाप मरा, तो घर मे भूनी भांग भी नहीं । अव लक्ष्मी घुटने तोड़कर आ बैठी हैं। एक द्वीपी ने कहा-कहीं गड़ा हुआ धन पा गया है। इस पर चारो ओर से उस पर बौछारें पढ़ने लगी-हाँ, तुम्हारे बाप-दादा जो खज़ाना छोड़ गये थे, वही उसके हाथ लग गया है। अरे भैया, यह धर्म की कमाई है। तुम भी तो छाती फाड़कर काम करते हो, क्यों ऐसी ऊख नहीं लगती, क्यो ऐसी फसल नहीं होती ? भगवान् आदमी का दिल देखते हैं, जो खर्च करना जानता है, उसी को देते हैं। ( २ ) सुजान महतो सुजान भगत हो गये । भगतो के आचार-विचार कुछ और ही होते हैं। वह विना स्नान किये कुछ नहीं खाता। गगाजी अगर घर से दूर हों और वह रोज़ स्नान करके दोपहर तक घर न लौट सकता तो पर्यों के दिन तो उसे अवश्य ही नहाना चाहिए। भजन-भाव उसके घर अवश्य होना चाहिए। पूजा-अर्चा उसके