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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/१८३

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सुजान भगत १७९ सुजान-तो अब मैं द्वार का कुत्ता हूँ। वुलाकी-बात जो थी, वह मैंने कह दी, अब अपने को जो चाहो, समझो। सुजान न उठे । बुलाकी हारकर चली गई। ( ) सुजान के सामने अब एक नई समस्या खड़ी हो गई थी। वह बहुत दिनों से घर का स्वामी था और अव भी ऐसा ही समझता था। परिस्थिति में कितना उलट- फेर हो गया था, इसकी उसे खवर न थी। लड़के उसका सेवा-सम्मान करते हैं, यह बात उसे भ्रम मे डाले हुए थी। लड़के उनके सामने चिलम नहीं पीते, खाट पर नहीं बैठते, क्या यह सब उसके गृह-स्वामी होने का प्रमाण न था ? पर आज उसे नात हुआ कि यह केवल श्रद्धा थी, उसके स्वामित्व का प्रमाण नहीं। क्या इस श्रद्धा के बदले वह अपना अधिकार छोड़ सकता था ? कदापि नहीं। अब तक जिस घर में राज्य किया, उसी घर में पराधीन बनकर वह नहीं रह सकता । उसको श्रद्धा की चाह नहीं, सेवा की भूख नहीं। उसे अधिकार चाहिए । वह इस घर पर दूसरों का अधिकार नहीं देख सकता । मन्दिर का पुजारी वनकर वह नहीं रह सकता । न-जाने कितनी रात बाकी थी। सुजान ने उठकर गॅड़ासे से बैलों का चारा काटना शुरू किया। सारा गाँव सोता था, पर सुजान करवी काट रहे थे। इतना श्रम उन्होंने अपने जीवन में कभी न किया था। जबसे उन्होंने काम करना छोड़ा था, बरावर चारे के लिए हाय-हाय पड़ी रहती थी। शकर भी काटता था, भोला भी काटता था, पर चारा पूरा न पड़ता था। आज वह इन लौंडों को दिखा देंगे, चारा कैसे काटना चाहिए। उनके सामने कटिया का पहाड़ खड़ा हो गया। और टुकड़े कितने महीन और सुडौल थे, मानो सांचे में ढाले गये हों। मुँह-अँधेरे बुलाकी उठी, तो कटिया का ढेर देखकर दग रह गई। बोली- क्या भोला आज रात-भर कटिया ही काटता रह गया ? कितना कहा कि नेटा, जी . से जहान है, पर मानता ही नहीं। रात को सोया ही नहीं। सुजान भगत ने ताने से कहा-वह सोता ही कब है ? जब देखता हूँ, काम ही करता रहता है। ऐसा कमाऊ संसार में और कौन होगा ! इतने में भोला आँखें मलता हुआ बाहर निकला। उसे भी यह ढेर देखकर आश्चर्य हुआ। मां से वोला-क्या शकर आज बडी रात को उठा था, अम्माँ ?