"१८८ मानसरोवर पर अबकी वह मूर्ति इतनी भयकर हो गई कि हरनाथ एक क्षण भी वहाँ खडा न रह सका । भागा, पर बरामदे ही में अचेत होकर गिर पड़ा। ( ४ ) हरनाथ ने चारों तरफ से अपने रुपये वसूल करके व्यापारियों को देने के लिए जमा कर रखे थे। चौधरी ने आँखें दिखाई , तो वही रुपये लाकर पटक दिये। दिल में उसी वक्त सोच लिया था कि रात को रुपये उड़ा लाऊँगा। झूठ-मूठ चोर का गुल मचा दूंगा, तो मेरी ओर सदेह भी न होगा। पर जब यह पेशवदी ठीक न उतरी, तो उस पर व्यापारियों के तगादे होने लगे। वादों पर लोगों को कहाँ तक टालता, जितने बहाने हो सकते थे, सब किये । आखिर वह नौबत आ गई कि लोग नालिश करने की धमकियाँ देने लगे। एक ने तो ३००) की नालिश कर भी दी। बेचारे चौधरी बड़ी मुश्किल में फँसे । दूकान पर हरनाथ वैठता था, चौधरी को .. उससे कोई वास्ता न था, पर उसकी जो साख थी, वह चौधरी के कारण। लोग चौधरी को खरा, लेन-देन का साफ आदसी समझते थे। अब भी यद्यपि कोई उनसे तकाजा न करता था, पर वह सबसे मुंह छिपाते फिरते थे। लेकिन उन्होंने यह निश्चय कर लिया था कि कुएँ के रुपये न छुऊँगा, चाहे कुछ भी पड़े। रात को एक व्यापारी के मुसलमान चपरासी ने चौधरी के द्वार पर आकर हजारों गालियाँ सुनाई । चौधरी को बार-बार क्रोध आता था कि चलकर उसकी मूंछे उखाड़ , पर मन को समझाया “हमसे मतलब ही क्या है, बेटे का कर्ज चुकाना बाप का धर्म नहीं।" जब भोजन करने गये, तो पत्नी ने कहा-यह सब क्या उपद्रव मचा रखा है ? चौधरी ने कठोर स्वर में कहा-मैंने मचा रखा है ? "और किसने मचा रखा है ? बच्चा कसम खाते हैं कि मेरे पास केवल थोड़ा-सा माल है, रुपये तो सब तुमने सांग लिये।" चौधरी-माँग न लेता तो क्या करता, हलवाई की दुकान पर दाटे का फातेहा पढना मुझे पसद नहीं। स्त्री- -यह नाक-कटाई अच्छी लगती है ? +
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/१९२
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