पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/२१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सोहाग का शव २०९ - रंगा है, यह सोचकर उसका रक्क खौल रहा था। जो मे आता था, इसी क्षण इसको दुत्कार दें, लेकिन उसके मन में कुछ ओर हो मसूवे पैदा होने लगे ये। उसने गंभीर, पर उदासोन भाव से पूछा-केशव ने कुछ उस स्त्री के विषय में नहीं कहा ? वह अब क्या करेगी, कैसे रहेगी ? युवती ने तत्परता से कहा घा पहुँचने पर वह उससे केवल यही कह देंगे कि हम और तुम अब स्त्री और पुरुष नहीं रह सकते। उसके भरण-पोषण का वह उसके इच्छानुसार प्रबंध कर देंगे, इसके सिवा वह और क्या कर सकते । हिन्दू-नीति में पति-पत्नी में विच्छेद नहीं हो सकता। पर केवल स्त्री को पूर्ण रीति से स्वाधीन कर देने के विचार से वह ईसाई या मुसलमान होने पर भी तैयार हैं। वह तो अभी उमे इसी आशय का एक पत्र लिखने जा रहे थे, पर मैंने हो रोक लिया। मुझे उस अभागिनी पर बड़ी दया आती है, मैं तो यहाँ तक तैयार हूँ कि अगर उसकी इच्छा हो तो वह भी हमारे साथ रहे। मैं उसे अपनी बड़ी बहन समझेंगी। किंतु केशव इससे महमत नहीं होते। सुभद्रा ने व्यग्य से कहा- रोटी-कपड़ा देने को तो तैयार ही हैं, स्त्री को इसके मिता और क्या चाहिए? युवती ने व्यग्य की कुछ परवा न करके कहा-तो मुझे लौटने पर कपड़े तैयार मिलेंगे न ? सुभद्रा - हां, मिल जायँगे। युवती-कल तुम सध्या समय आओगी ? सुभद्रा - नहीं, खेद है, मुझे अवकाश नहीं है। युवती ने कुछ न कहा । चली गई। सुमद्रा कितना ही चाहती थी कि इस समस्या पर शांतचित्त होकर विचार करे, पर हृदय में मानो ज्वाला-सी दहक रही थी। वेशव के लिए वह अपने प्राणों का कार्ड मूल्य नहीं समझती थी। वही केशव उसे पैरों से ठुकरा रहा है। यह आघात इतना आकस्मिक, इतना कठोर था कि उसकी चेतना की सारी कोमलता मूच्छित हो गई। उसका एक-एक अगु प्रतीकार के लिए तड़पने लगा। अगर यही समस्या इसके वपरीत होती, तो क्या सुभद्रा की गरदन पर छुरी न फिर गई होती ? केशव उसके १४