२१४ मानसरोवर युवती ने चकित होकर कहा-"सच ! आप इसकी अनुमति देती हैं ?" सुमद्रा ने कहा- "बड़े हर्ष से।" "तुम्हें सन्देह न होगा ?" "बिलकुल नहीं।" "और जो मैं दो-चार दिन पहने रहूँ ? "तुम दो-चार महीने पहने रहो । आखिर, यहाँ पड़े ही तो हैं।" "तुम भी मेरे साथ चलो।" "नहीं, मुझे अवकाश नहीं है।' "अच्छा, तो मेरे घर का पता नोट कर लो।" "हां, लिख दो, शायद कभी आऊँ।" एक क्षण में युवती यहाँ से चली गई । सुभद्रा अपनी खिड़की पर उसे इस भांति प्रसन्न-मुख खड़ी देख रही थी, मानो उसकी छोटी बहन हो। ईर्ष्या या द्वेष का लेश भी उसके मन में न था। मुश्किल से एक घण्टा गुजरा होगा कि युवती लौटकर बोली- “सुभद्रा ! क्षमा करना, मैं तुम्हारा समय बहुत खराव कर रही हूँ । केशव बाहर खड़े हैं । बुला लूँ ?" एक क्षण, केवल एक क्षण के लिए, सुभद्रा कुछ घबड़ा गई। उसने जल्दी से उठकर मेज़ पर पड़ी हुई चोज़े इधर-उधर हटा दी, कपड़े करीने से रख दिए, अपने उलझे हुए बाल सँभाल लिये, फिर उदासीन भाव से मुसकिराकर बोली- "उन्हें तुमने क्यों कर दिया, जाओ, बुला लो।" एक मिनट में केशव ने कमरे में कदम रक्खा और चौंककर पीछे हट गए, मानो पांव जल गया हो। मुंह से एक चीख निकल गई। सुभद्रा गभीर, शात, निश्चल अपनी जगह पर खड़ी रही। फिर हाथ बढ़ाकर बोली, मानो किसी अपरिचित व्यक्ति से बोल रही हो-"आइए मिस्टर केशव, मैं आपको ऐसी सुशीला, ऐसो सुन्दरी, ऐसी विदुषी रमणी पाने पर बधाई देती हूँ।" केशव के मुंह पर हवाइयां उड़ रही थीं। वह पथ-भ्रष्ट-सा बना खड़ा था । लज्जा और ग्लानि से उसके चेहरे पर एक रग आता था, एक रग जाता था। यह बात एक दिन होनेवाली थी अवश्य, पर इस तरह अचानक उसकी सुभद्रा से भेंट होगी, इसका उसे स्वप्न में भी गुमान न था। सुभद्रा से वह यह वात कैसे कहेगा, इसको .
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/२१८
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