२३२ मानसरोवर -
प्रेम के मतवालों को वह सब्ज बारा दिखा चुकी थी, पर कभी उसके मन में ऐसी दुविधा न हुई थी, कभी उसके हृदय ने उसका तिरस्कार न किया था। क्या इसका कारण इसके सिवा कुछ और था कि ऐसा अनुराग उसे और कहीं न मिला था ! क्या वह कुँवर साहव का जीवन सुखी बना सकती है ? हाँ अवश्य । इस विषय में उसे लेशमात्र भी सदेह नहीं था। भक्ति के लिए ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो असाध्य हो ; पर क्या वह प्रकृति को धोखा दे सकती है ? ढलते हुए सूर्य में मध्याह का-सा प्रकाश हो सकता है ? असंभव । वह स्फूर्ति, वह चपलता, वह विनोद, वह सरल छवि, वह तल्लीनता, वह त्याग, वह आत्मविश्वास वह कहाँ से लायेगी, जिसके सम्मि- श्रण को यौवन कहते हैं ? नहीं, वह कितना ही चाहे, पर कुँवर साहब के जीवन को सुखी नहीं बना सकती। बूढ़ा वैल कभी जवान बछड़े के साथ नहीं चल सकता ! आह ! उसने यह नौवत ही क्यों आने दी। उसने क्यों कृत्रिम साधनों से, बनावटी सिंगार से कुँवर को धोखे में डाला ? अव इतना सब कुछ ही जाने पर वह किस मुंह से कहेगी कि मैं रॅगी हुई गुड़ियाँ हूँ, जवानी मुझसे कवको बिदा हो चुकी, अव केवल उसका पद-चिह्न रह गया है। रात के बारह बज गये थे । तारा मेज़ के सामने इन्हीं चिंताओं में मग्न बैठी हुई थी। मेज़ पर उपहारों के ढेर लगे हुए थे , पर वह किसी चीज़ की ओर आँख उठाकर भी न देखती थी। अभी चार दिन पहले वह इन्हीं चीजों पर प्राण देतो थी, उसे हमेशा ऐसी चीजों की तलाश रहती थी, जो काल के चिहों को मिटा सकें, जो , उसके झिलमिलाते हुए यौवन-दीपक को प्रज्वलित कर सकें , पर अब उन्हीं चीजों से उसे घृणा हो रही है। प्रेम सत्य है-और सत्य और मिथ्या, दोनों एक साथ नहीं रह सकते। तारा ने सोचा-क्यों न यहाँ से कहीं भाग जाय ? किसी ऐसी जगह चली जाय, जहाँ कोई उसे जानता भी न हो। कुछ दिनों के बाद जब कुँवर का विवाह हो जाय, तो वह फिर आकर उनसे मिले और यह सारा वृत्तात उनसे कह सुनाये । इस समय कुँवर पर वज्राघात-सा होगा-हार्य ! न-जाने उनकी क्या दशा होगी ; पर उसके लिए इसके सिवा और कोई मार्ग नहीं है। अव उसके दिन रो-रोकर कटेंगे, लेकिन उसे कितना ही दु.ख क्यों न हो, वह अपने प्रियतम के साथ छल नहीं कर, 1