पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/२३७

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ऐक्टूस २२३ सकती। उसके लिए इस स्वर्गीय प्रेम की स्मृति, इसकी वेदना ही बहुत है। इससे अधिक उसका अधिकार नहीं। दाई ने आकर कहा-~बाईजी, चलिए, कुछे थोड़ा-सा भोजन कर लीजिए, अब तो चारह बज गये। तारा ने कहा-नहीं, जरा भी भूख नहीं है। तुम जाकर खा लो। दाई-~देखिए, मुझे भूल न जाइएगा । मैं भी आपके साथ चलूँगी। तारा-अच्छे-अच्छे कपड़े वनवा रखे हैं न ? दाई अरे बाईजी, मुझे अच्छे कपड़े लेकर क्या करना है। आप अपना कोई उतारा दे दीजिएगा। दाई चली गई। तारा ने घड़ी की ओर देखा। सचमुच बारह बज गये थे। केवल छ' घटे और हैं। प्रात काल कुँवर साहव उसे विवाह-मदिर में ले जाने के लिए आ जायेंगे । हाय ! भगवान् , जिस पदार्थ से तुमने इतने दिनों उसे चचित रखा, वह आज क्यों सामने लाये ? क्या यह भी तुम्हारी क्रोड़ा है ! तारा ने एक सफेद साड़ी पहन ली। सारे आभूषण उतारकर रख दिये। गर्म पानी मौजूद था । साबुन और पानी से मुंह धोया और आइने के सम्मुख जाकर खड़ी हो गई-कहीं थी वह छवि, वह ज्योति , जो आँखों को लुभा लेती थी। रूप वही था, पर वह कांति कहाँ ? क्या अब भी वह यौवन का स्वांग भर सकती तारा को अब वहाँ एक क्षण और रहना कठिन हो गया। मेज़ पर आभूषण और विलास की सामग्रियां मानो उसे काटने दौड़ने लगीं। यह कृत्रिम जीवन असह्य हो उठा, खस की टट्टियों और बिजली के पखों से सजा हुआ शोतल भवन उसे भट्ठी के समान तपाने लगा। उसने सोचा--कहाँ भाग कर जाऊँ । रेल से भागती हूँ, तो भागने न पाऊँगो, सबेरे ही कुँवर साहव के आदमी छूटेंगे और चारों तरफ मेरी तलाश होने लगेगी । वह ऐसे रास्ते से जायगी, जिधर किसी का खयाल भी न जाय । तारा का हृदय इस समय गर्व से छलका पड़ता था। वह दु खो न थी, निराश न थी, वह फिर कुँवर साहब से मिलेगी, किंतु वह निस्वार्थ सयोग होगा। वह प्रेम के बताये हुए कर्तव्य-मार्ग पर चल रही है, फिर दु ख क्यों हो और निराशा क्यों हो ? सहसा उसे खगल आया - ऐसा न हो, कुँवर साहव उसे वहाँ न पाकर शोक- 2 5