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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/२३८

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२३४ मानसरोवर . 3 . विह्वलता की दशा में कोई अनर्थ कर बैठे। इस कल्पना से उसके रोंगटे खड़े हो गये। एक क्षण के लिए उसका मन कातर हो उठा। फिर वह मेज़ पर जा बैठो, और यह पत्र लिखने लगी- "प्रियतम, मुझे क्षमा करना। मैं अपने को तुम्हारी दासी बनने के योग्य नहीं पाती । तुमने मुझे प्रेम का वह स्वरूप दिखा दिया, जिसकी इस जीवन में मैं आशा न कर सकती थी। मेरे लिए इतना ही बहुत है । मैं जब तक जीऊंगो, तुम्हारे प्रेम में मग्न रहूंगी। मुझे एसा जान पड़ रहा है कि प्रेम की स्मृति में, प्रेम के भोग से कहीं अधिक माधुर्य और आनद है। मैं फिर आऊँगी, फिर तुम्हारे दर्शन करूँगी, लेकिन उसी दशा में, जब तुम विवाह कर लोगे। यही मेरे लौटने की शर्त है। मेरे प्राणों के प्राण, मुझसे नाराज़ न होना, ये आभूषण, जो तुमने मेरे लिए भेजे थे, अपनी ओर से नववधू के लिए छोड़े जाती हूँ। केवल वह मोतियों का हार, जो तुम्हारे प्रेम का पहला उपहार है, अपने साथ लिये जाती हूँ। तुमसे हाथ जोड़कर कहती हूँ, मेरी तलाश न करना, मैं तुम्हारी हूँ, और सदा तुम्हारी रहूँगी तुम्हारी तारा" यह पत्र लिखकर तारा ने मेज़ पर रख दिया, मोतियों का हार गले मे डाला और बाहर निकल आई । थिएटर हाल से सगीत की ध्वनि आ रही थी । एक क्षण के लिए उसके पैर बंध गये। पद्रह वर्षों का पुराना सवध आज टूटा जा रहा था। सहसा उसने मैनेजर को आते देखा। उसका कलेजा धक से हो गया। वह बड़ी तेजी से लपककर दीवार की आड़ में खडी हो गई। ज्यों ही मैनेजर निकल गया, वह हाते के बाहर आई, और कुछ दूर गलियों में चलने के बाद उसने गगा का रास्ता पकड़ा। गगा-तट पर सन्नाटा छाया हुआ था। दस-पांच साधु-वैरागी धूनियों के सामने लेटे थे। दस-पांच यात्री कबल ज़मीन पर निछाये सो रहे थे। गगा किसी विशाल सर्प की भांति रेंगतो चल जाती थी। एक छोटी-सी नौका किनारे पर लगी हुई थी। मल्लाह नौका में बैठा हुआ था। तारा ने मल्लाह को पुकारा-ओ मांझी, उस पार नाव ले चलेगा ? मांझी ने जवाब दिया-इतनी रात गये नाव न जाई । . ,