२० मानसरोवर i । . छेदी बोला--मेरे पिता का नाम है दमड़ी तिवारी । वेनीराम ने कहा--मेरे पिता का नाम है पण्डित मँगरु ओझा। अलगूराम समझदार था। चुपचाप खड़ा रहा । रानी ने उससे पूछा 'तुम्हारे पिता का क्या नाम है, जी ? अलगूराम को इस वक्त पिता का निर्दिष्ट नाम याद न आया । न यही सूझी कि कोई और नाम ले ले । हतबुद्धि-सा खड़ा रहा। पण्डित मोटेराम ने जब उसकी ओर दांत पीसकर देखा, तव रहा-सहा हवास भी गायब हो गया । फेकू ने कहा-हम बता दें। भैया भूल गये । रानी ने आश्चर्य से पूछा- क्या अपने पिता का नाम भूल गया ? यह तो विचित्र बात देखी। मोटेराम ने अलगू के पास जाकर कहा - कैसे है। अलगूराम बोल उठा- केशव पड़े। रानी-तो अब तक क्यो चुप था ? मोटे.--कुछ ऊँचा सुनता है, सरकार ? रानी-मैंने सामान तो वहुत-सा मॅगवा रखा है। सब खराब होगा। लड़के क्या खायेंगे! मोटे०-सरकार इन्हें बालक न समझे। इनमें जो सबसे छोटा है, वह दो पत्तल खाकर उठेगा। . । जब सामने पत्तले पड़ गई और भण्डारी चाँदी की थालों में एक-से-एक उत्तम पदार्थ ला-लाकर परसने लगा, तव पण्डित मोटेरामजी की आँखें खुल गई। उन्हें आये दिन निमन्त्रण मिलते रहते थे। पर ऐसे अनुपम पदार्थ कभी सामने न , आये थे। घी की ऐसी सोंधी सुगन्ध उन्हें कभी न मिली थी। प्रत्येक वस्तु से केवड़े और गुलाव की लपटें उड़ रही थीं, घी टपक रहा था। पण्डितजी ने सोचा- ऐसे पदार्थों से कभी पेट भर सकता है ! मनो खा जाऊँ, फिर भी और खाने को जी चाहे । देवतागण इनसे उत्तम और कोने-से , पदार्थ खाते होगे ? इनसे उत्तम पदार्थों की तो कल्पना भी नहीं हो सकती। पण्डितजी को इस वक्त अपने परममित्र पण्डित चिन्तामणि की याद आई।
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