पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/२४९

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ईश्वरीय न्याय प्रतिरोध किया। इसपर किसीने ध्यान न दिया। मुशोजी दफ्तर में दाखिल हुए। भीतर चिराग जल रहा था। मुशीजी को देखकर उसने एक दफे सिर हिलाया । मानो उन्हें भीतर आने से रोका। मु शोजी के पैर थर-थर काँप रहे थे। एड़ियां जमीन से उछली पड़ती थीं । पाप का वोम उन्हें असह्य था। परभर में मु शोजी ने वहियों को उलट-पलटा । लिखावट उनकी आँखों में तेर रही थी। इतना अवकाश कहाँ था कि जरूरी कागजात छाँट लेते। उन्होंने सारी बहियों को समेटकर एक गट्ठर बनाया और सिर पर रखकर तीर के समान कमरे के बाहर निकल आये। उस पाप की गठरी को लादे हुए वह अँधेरी गली से गायव हो गये। तग, अँधेरी, दुर्गन्विपूर्ण कीचड़ से भरी हुई गलियों में वे नगे पांव, स्वार्थ, लोभ और कपट का वोझ लिये चले जाते थे। मानो पापमय आत्मा नरक की नालियों में वही चली जाती थी। बहुत दूर तक भटकने के बाद वे गगा के किनारे पहुँचे। जिस तरह कलुपित हृदयों में कहीं-कहीं धम का धुंधला प्रकाश रहता है, उसी तरह नदी की काली सतह पर तारे झिलमिला रहे थे। तट पर कई साधु धूनी रमाये पड़े थे। ज्ञान की ज्वाला मन की जगह वाहर दहक रही थी। मुशीजी ने अपना गट्ठर उतारा और चादर से खूब मजबूत बांधकर वलपूर्वक नदो में फेंक दिया। सोती हुई लहरों में कुछ हलचल हुई और फिर सन्नाटा हो गया । मु शो सत्यनारायणलाल के घर में दो स्त्रियाँ थीं-माता और पत्नी , वे दोनों अशिक्षिता थीं । तिसपर भी मु शीजी को गगा मे बूब मरने या कहीं भाग जाने की ज़रत न होती थी । न वे बाढी पहनती थीं, न मोजे-जूते, न हारमोनियम पर गा सकती थीं। यहाँ तक कि उन्हे सावुन लगाना भी न आता था। हेयरपिन, व्र जाकेट आदि परमावश्यक चीजों का तो उन्होंने नाम ही नहीं सुना था । वहू में आत्म-गम्मान जरा भी नहीं था, न सास मे आत्मगौरव का जोश । वह अब तक सास को घुड़कियां भीगी बिल्ली की तरह सह लेतो पी - हा मूर्ख ! सास को बच्चे के। नहलाने-धुलाने, यहाँ तक कि घर में झाडू देने से भी घृणा न थी, हा ज्ञानान्धे । बहू चेज, --