२६० मानसरोवर आपत्ति से बचने के लिए कई आपत्तियों का बोझा न उठाना पड़े। मित्रों को इन मामलों की खबर तक न दी। जब दोपहर हो गया और उनकी दशा ज्यों-की-त्यों रही, तो उनका छोटा लड़का बुलाने आया। उसने बाप का हाथ पकड़कर कहा- लालाजी, आज काने क्यों नहीं तलते ! रामरक्षा-भूख नहीं है। 'क्या काया है ? 'मन को मिठाई। 'और क्या काया है ? 'मार। 'किचने मारा? 'गिरधारीलाल ने।' लड़का रोता हुआ घर में गया और इस मार की चोट से देर तक रोता रहा। अन्त में तश्तरी में रखी हुई दूध की मलाई ने उसकी इस चोट पर मरहम का काम दिया। रोगों को जब जीने की आशा नहीं रहती, तो औषधि छोड़ देता है। मिस्टर रामरक्षा जब इस गुत्थी को न सुलझा सके, तो चादर तान ली और मुंह लपेटकर सो रहे। शाम को एकाएक उठकर सेठजी के यहां पहुंचे और कुछ असावधानी से वोले- महाशय ! मैं आपका हिसाब नहीं कर सकता। सेठजी घबराकर बोले- क्यों ? रामरक्षा~-इसलिए कि मैं इस समय दरिद्र-निहग हूँ। मेरे पास एक कौड़ी भी नहीं है। आप अपना रुपया जैसे चाहें, वसूल कर सेठं यह आप कैसी बातें कहते हैं ? -बहुत सेठ-दुकानें नहीं हैं ? रामरक्षा-दूकाने आप मुफ्त ले जाइए। रामरक्षा- सच्ची।
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/२६४
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