ममता २६३ विचारों में मग्न रामरक्षा शाम को टाउनहाल मे पहुँचे। उपस्थित सभ्यों ने बड़ी उमग के साथ उनका स्वागत किया। थोड़ी देर बाद वोटिङ्ग' आरम्भ हुआ। मेम्बरी मिलने की आशा रखनेवाले महानुभाव अपने-अपने भाग्य का अन्तिम फल सुनने के लिए आतुर हो रहे थे। छः बजे चेयरमैन ने फैसला सुनाया। सेठजी की हार हो गई । फैजुलरहमान ने मैदान मार लिया। रामरक्षा ने हर्प के आवेग में टोपी हवा में उछाल दी और वे स्वय भी कई वार उछल पड़े। महल्लेवालों को अचम्भा हुआ। चाँदनी-चौक से सेठजी को हटाना मेरु को स्थान से उखाड़ना था। सेठजी के चेहरे से रामरक्षा को जितनी आशाएँ थों, वे सब पूरी हो गई । उनका रङ्ग फीका पड़ गया था। वे खेट और लज्जा की मूर्ति बने हुए थे। एक वकील साहब ने उनसे सहानुभूति प्रकट करते हुए कहा -“सेठजी, मुझे आपकी हार का बहुत बड़ा शोक है। मैं जानता कि खुशो के बदले रज होगा, तो कभी यहां न आता । मैं तो केवल आपके ख्याल से यहां आया था।" सेठजी ने बहुत रोकना चाहा, परन्तु आँखों में आँसू डब- डबा ही गये। वे नि स्पृह बनने का व्यर्थ प्रयत्न करके वोले-"वकील साहब, मुझे इसकी कुछ चिन्ता नहीं। कौन रियासत निकल गई ? व्यर्थ उलमान, चिन्ता तथा झझट रहती थी। चलो, अच्छा हुआ । गला छूटा । अपने काम में हरज होता था । सत्य कहता हूँ, मुझे तो हृदय से प्रसन्नता ही हुई। यह काम तो बेकामवालों के लिए है, घर न बैठे रहे, यही वेगार को। मेरो मुर्खता थी कि मैं इतने दिनों तक आँखें वन्द किये बैठा रहा।” परन्तु सेठजो की मुखाकृति ने इन विचारों का प्रमाण न दिया। मुखमण्डल हृदय का दर्पण है, इसका निश्चय अलबत्ता हो गया। किन्तु वावू रामरक्षा बहुत देर तक इस आनन्द का मज़ा न लूटने पाये और न सेठजी को वदला लेने के लिए बहुत देर तक प्रतीक्षा करनी पड़ी। सभा विसर्जित होते ही जय बाबू रामरक्षा सफलता की उमग मे ऐंठते, मोंछ पर ताव देते और चारो ओर गर्व की दृष्टि डालते हुए बाहर आये, तो दीवानी के तोन सिपाहियों ने आगे वढकर उन्हें गिरफ्तारी का वारण्ट दिखा दिया। अवको वावू रामरक्षा के चेहरे का रग उतर जाने की, और सेठजी के इस मनोवाछित दृश्य से आनन्द उठ आने की बारी थी। गिरधारीलाल ने आनन्द की उमग में तालियां तो न वनाई , परन्तु मुस्कुराकर मुँह फेर लिया । रङ्ग में भज्ञ पड़ गया। आज इस विषय के उपलक्ष्य में मु शो फैजुलरहमान ने पहले हो से एक बड़े
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