पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/२९३

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प्रायश्चित्त २८९ , मदारीलाल ने खड़े होकर मृदु तिरस्कार दिखाते हुए कहा -साहब, गुस्ताखी माफ हो, आप जब कभी बाहा जाय, चाहे एक हो मिनट के लिए क्यों न हो, तक दरवाज़ा ज़रूर वन्द कर दिया करें। आपको मेज़ पर हाये-पैसे, और सरकारी कागज़- पत्र विखरे पड़े रहते हैं न जाने किस वक किपकी नीयत बदल जाय। मैंने अभी सुना कि आप कहीं बाहर गये हुए हैं, तब दरवाजे बन्द कर दिये । सुबोधचन्द्र द्वार खोलकर कमरे में गये और एक सिगार पीने लगे । मेज़ पर नोट रखे हुए हैं, इसकी खबर ही न थी। सहसा, ठीकेदार ने आकर सलाम किया। सुबोध कुरसी से उठ बैठे और बोले- तुमने बहुत देर कर दी, तुम्हारा ही इन्तज़ार कर रहा था। दस ही बजे रुपये मँगवा लिये थे। रसोद का टिकट लाये हो न ठीकेदार-हुजूर, रसोद लिखता लाया हूँ। सुबोध-तो अपने रुपये ले जाओ। तुम्हारे काम से में बहुत खुश नहीं हूँ। लकड़ी तुमने अच्छी नहीं लगाई और काम में सफाई भी नहीं है। अगर ऐसा काम फिर करोगे तो ठीकेदारों के रजिस्टर से तुम्हारा नाम निकाल दिया जायगा। यह कहकर सुबोध ने मेज़ पर निगाह डाली तब नोटों के पुलिन्दे न थे। सोचा, शायद किसी फाइल के नीचे दब गये हों। कुरसी के समीप के सब काग्रज उलट-पलट डाले ; मगर नोटों का कहीं पता नहीं। ऐ। नोट कहाँ गये। अभी यहीं तो मैंने रख दिये थे। जा कहाँ सकते हैं। फिर फाइलों को उलटने-पलटने लगे। दिल में ज़रा-जरा धड़कन होने लगी। सारी मेज़ के कागज़ छान डाले, पुलिन्दों का पता नहीं । तब वे कुरसी पर बैठकर इस आध घटे में होनेवाली घटनाओं की मन में आलोचना करने लगे-चपरासी ने नोटों के पुलिन्दे लाकर मुझे दिये, खूब याद है, भला यह भी भूलने की बात है और इतनी जल्द ! मैंने नोटों को लेकर यहीं मेज पर रख दिया, गिना तक नहीं। फिर वकील साहब आगये, पुराने मुलाकाती हैं, उनसे बातें करता हुआ जरा उस पेड़ तक चला गया, उन्होंने पान मँगवाये, वस इतनी ही देर हुई। जब गया हूँ तब पुलिन्दे रखे हुए थे। खूब अच्छी तरह याद है। तव ये नोट कहाँ गायव हो गये। मैंने किसी सन्दूक, दराज़ या आलमारी में नहीं रखे। फिर गये तो कहाँ । शायद दफ्तर में किसीने सावधानी के लिए उठाकर रख दिये हो । यही बात है। मैं व्यर्थ हा इतना घबरा गया । छि ! १९