२९० मानसरोवर तुरन्त दफ्तर में आकर मदारीलाल से बोले-आपने मेरो मेज़ पर से नोट तो उठाकर नहीं रख दिये ? मदारीलाल ने भौचक्के होकर कहा-क्या आपकी मेज़ पर नोट रखे हुए थे? मुझे, तो खबर नहीं। अभी पण्डित सोहनलाल एक फाइल लेकर गये थे तब आपको कमरे में न देखा । जब मुझे मालूम हुआ कि आप किसीसे बातें करने चले गये हैं तब दरवाजे वन्द करा दिये । क्या कुछ नोट नहीं मिल रहे हैं ? सुबोध आँखें फैलाकर वोले--अरे साहब, पूरे पांच हजार के हैं। अभी-अभी चेक भुनाया है। मदारीलाल ने सिर पीटकर कहा-पूरे पांच हज़ार ! या भगवान् ! आपने मेज़ पर खूब देख लिया ? 'अजी पन्द्रह मिनट से तलाश कर रहा हूँ।' 'चपरासी से पूछ लिया कि कौन-कौन आया था ?' 'आइए, ज़रा आप लोग भी तलाश कीजिए। मेरे तो होश उड़े हुए हैं।' सारा दफ्तर सेक्रेटरी साहब के कमरे की तलाशी लेने लगा। मेज़, आल्मारियां, सन्दूक सब देखे गये। रजिस्टरों के वर्क उलट-पलटकर देखे गये , मगर नोटो का कहीं पता नहीं। कोई उड़ा ले गया, अव इसमें कोई शुबहा न था । सुवोध ने एक लम्बी साँस ली और कुरसी पर बैठ गये। चेहरे का रङ्ग फक हो गया। ज़रा-सा मुँह निकल आया । इस समय कोई उन्हें देखता तो समझता, महीनों से बीमार हैं। मदारीलाल ने सहानुभूति दिखाते हुए कहा -राज़ब हो गया और क्या ! आज तक कभी ऐसा अन्धेर न हुआ था। मुझे यहाँ काम करते दस साल हो गये, कभी धेले की चीज़ भी गायब न हुई । मैंने आपको पहले ही दिन सावधान कर देना चाहा था कि रुपये-पैसे के विषय में होशियार रहिएगा , मगर शुदनी थी, ख्याल न रहा। ज़रूर बाहर से कोई आदमी आया और नोट उड़ाकर गायब हो गया। चपरासी का यही अपराध है कि उसने किसीको कमरे में जाने ही क्यों दिया। वह लाख कसमें खाये कि बाहर से कोई नहीं आया; लेकिन मैं इसे मान नहीं सकता। यहाँ से तो केवल पण्डित सोहनलाल एक फाइल लेकर गये थे , मगर दरवाज़ ही से झांककर चले आये।
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