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पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/३१७

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इस्तीफा ३१३ शारदा -बड़ा अच्छा किया तुमने, और मारना चाहिए था। मैं होती, तो बिना जान लिये न छोड़ती। फतहचद-मार तो आया हूँ , लेकिन अब खैरियत नहीं है। देखो, क्या नतीजा होता है ? नौकरी तो जायगी ही, शायद सज़ा भी काटनो पड़े ? शारदा-सज़ा क्यों काटनी पड़ेगी 2 का कोई इन्साफ करनेवाला नहीं है ? उसने क्यों गालियां दी, क्यों छड़ी जमाई ? फतहचद-उसके सामने मेरी कौन सुनेगा ? अदालत भी उसी की तरफ हो जायगी। शारदा-हो जायगी, हो जाय, मगर देख लेना, अब किसी साहब की यह हिम्मत न होगो कि किसी चावू को गालियां दे बैठे। तुम्हे चाहिए था, कि ज्योंहो उसके मुँह से गालियां निकलीं, लपककर एक जूता रसोद करते । फतहचद-तो फिर इस वक्त ज़िन्दा लौट भो न सकता। जरूर मुझे गोली मार देता। शारदा -देखी जाती। फतहचद ने मुस्कराकर कहा-फिर तुम लोग कहाँ जाती ? शारदा-जहाँ ईश्वर की मरजी होतो। आदमी के लिए सबसे बड़ी चीज़ इज्जत है। इज्जत गँवाकर बाल-बच्चों की परवरिश नहीं की जाती। तुम उस शैतान को मारकर आये हो, मैं गर से फूली नहीं समाती। मार खाकर आते, तो शायद मैं तुम्हारी सूरत से भी घृणा करती। यों ज़बान से चाहे कुछ न कहती , मगर दिल से तुम्हारी इज्जत जातो रहती । अब जो कुछ सिर पर आयेगी, खुशी से झेल लूंगी कहाँ जाते हो, सुनो-सुनो, कहाँ जाते हो ? फतहचद दीवाने होकर जोश में घर से निकल पड़े। शारदा पुकारती रह गई। वह फिर साहब के बँगले की तरफ जा रहे थे । डर से सहमे हुए नहीं , बल्कि गरूर से गर्दन उठाये हुए । पक्का इरादा उनके चेहरे से झलक रहा था। उनके पैरों में वह कमजोरी, आँखों में वह बेकसी न थी । उनको कायापलट-सो हो गई। वह कमज़ोर बदन, पीला मुखड़ा, दुबले बदनवाला, दफ्तर के वावू की जगह अब मर्दाना चेहरा, हिम्मत से भरा हुआ, मजबूत गठा हुआ 'जवान था। उन्हान पहले एक दोस्त के घर जाकर उसका उडा लिया और अकड़ते हुए साहब के बँगले पर जा पहुंचे। .