मन्त्र श्लोक पढ सुनाया। उनका शुद्ध उच्चारण और मधुर वाणो सुनकर सेठजी चकित हो गये, पूछा-कहाँ स्थान है ? पण्डितजी-काशी से आ रहा है। यह कहकर पण्डितजी ने सेठजी से धर्म के दसों लक्षण बतलाये और श्लोक को ऐसी अच्छी व्याख्या की कि वह मुग्ध हो गये । वोले- महाराज, आज चलकर मेरे स्थान को पवित्र कीजिए। कोई स्वार्थी आदमी होता, तो इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लेता ; लेकिन पण्डितजी को लौटने की पड़ी थी। बोले नहीं सेठजी, मुझे अवकाश नहीं है। सेठ-महाराज, आपको हमारी इतनी खातिरी करनी पड़ेगी। पण्डितजी जब किसी तरह ठहरने पर राज़ी न हुए, तो सेठजी ने उदास होकर कहा--फिर हम आपको क्या सेवा करें ? कुछ आज्ञा दीजिए। आपकी वाणी से तो तृप्ति नहीं हुई। फिर कभी इधर आना हो, तो अवश्य दर्शन दोजिएगा। पण्डितजी-आपकी इतनी श्रद्धा है, तो अवश्य आऊँगा। यह कहकर पण्डितजी फिर उठ खड़े हुए । सकोच ने फिर उनकी ज़बान बन्द कर दी। यह आदर-सत्कार इसलिए तो है कि मैं अपना स्वार्थ भाव छिपाये हुए हूँ। कोई इच्छा प्रकट की और इनकी आँखें बदलीं। सूखा जवाब चाहे न मिले; पर यह श्रद्धा न रहेगी । वह नीचे उतर गये, और सड़क पर एक क्षण के लिए खड़े होकर सोचने लगो-अव कहाँ जाऊँ ? उधर जाड़े का दिन किसी विलासी के धन की भांति भागा चला जाता था। वह अपने ही ऊपर अमला रहे थे जब किसी से मांगूंगा ही नहीं, तो कोई क्यो देने लगा ? कोई क्या मेरे मन का हाल जानता है ? वे दिन गये, जव धनी लोग ब्राह्मणों की पूजा किया करते थे। यह आशा छोड़ दो कि कोई महाशय आकर तुम्हारे हाथ मे रुपये रख देंगे। वह धीरे- धीरे आगे बढ़े। सहसा सेठजी ने पीछे से पुकारा-पण्डितजी, जरा ठहरिए । पण्डितजी ठहर गये। फिर घर चलने के लिए आग्रह करने आता होगा। यह तो न हुआ कि एक दस रुपये का नोट लाकर दे देता, मुझे घर ले जाकर; न-जाने क्या करेगा!
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/५५
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