५२ मानसरोवर , मगर जब सेठजी ने सचमुच एक गिनी निकालकर उनके पैरों पर रख दो, तो उनकी आँखों में एहसान के आँसू उछल आये। हैं, अब भी सच्चे धर्मात्मा जीव ससार में हैं, नहीं तो यह पृथ्वी रसातल को न चली जाती! अगर इस वक्त उन्हें सेठजी के कल्याण के लिए अपनी देह का सेर-आध-सेर रक्त भी देना पड़ता, तो भी शौक से दे देते । गद्गद कण्ठ से बोले-इसका तो कुछ काम न था, सेठजी ! मैं भिक्षुक नहीं हूँ, आपका सेवक हूँ। सेठजी श्रद्धा-विनय-पूर्ण शब्दों में बोले -भगवन्, इसे स्वीच कीजिए। यह दान नहीं, भेंट है। मैं भी आदमी पहचानता हूँ। बहुतेरे साधु-संत, योगी-यती, देश और धर्म के सेवक आते रहते हैं ; पर न जाने क्यों, किसी के प्रति मेरे मन में श्रद्धा नहीं उत्पन्न होती । उनसे किसी तरह पिण्ड छुड़ाने की पड़ जाती है। आपका संकोच देखकर मैं समझ गया कि आपका यह पेशा नहीं है। आप विद्वान् हैं, धर्मात्मा हैं ; पर किसी संकट में पड़े हुए है। इस तुच्छ भेंट को स्वी- कार कीजिए और मुझे आशीर्वाद दीजिए। ( ७ ) पण्डितजी दवाएं लेकर घर चले, तो हर्ष, उल्लास 'और विजय से उनका हृदय उछला पड़ता था। हनूमान भी सजीवन-बूटी लाकर इतने प्रसन्न न हुए होंगे । ऐसा सच्चा आनन्द उन्हें कभी प्राप्त न हुआ था। उनके हृदय मे इतने पवित्र भावो का सचार कभी न हुआ था। दिन बहुत थोड़ा रह गया था । सूर्यदेव अविरल गति से पश्चिम की ओर दौड़ते चले जाते थे। क्या उन्हें भी किसी रोगी को दवा देनी थी ? वह बड़े वेग से दौड़ते हुए एक पर्वत को ओट में छिप गये । पण्डितजी और भी फुती से पाँव बढ़ाने लगे, मानो उन्होंने सूर्यदेव को पकड़ लेने की ठानी हो । देखते-देखते अँधेरा छा गया। आकाश मे दो-एक तारे दिखाई देने लगे। अभी दस मील की मजिल बाकी थी। जिस तरह काली घटा को सिर पर मॅडराते देखकर गृहिणी दौड़-दौड़ सुखावन समेटने लगती है, उसी भौति लीलाधर ने 'दौड़ना शुरू किया। उन्हें अकेले पड़ जाने का भय था, भय था अँधेरे में राह भूल जाने का । दाहने-बाएँ बस्तियाँ छूटती जाती थीं। पण्डितजी को ये गाँव इस समय बहुत ही सुहावने मालूम होते थे। कितने आनन्द से लोग अलाव के सामने बैठे ताप रहे है। 1
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