कामना-तरु चन्दा ने पौधे को एक सीधी लकड़ी से बाँधते हुए कहा-हाँ, उसी दिन तो, जव तुम यहाँ आये। यहाँ पहले मेरी गुड़ियों का घरौंदा था। मैंने गुड़ियों पर छाँह करने के लिए एक अमोला लगा दिया था। फिर मुझे इसकी याद नहीं रही। घर के काम-धन्धे में भूल गई। जिस दिन तुम यहाँ आये, मुझे न जाने क्यों इस पौधे की याद आ गई । मैंने आकर देखा, तो वह सूख गया था। मैंने तुरन्त पानी लाकर इसे सींचा, तो कुछ-कुछ ताज़ा होने लगा। तबसे रोज़ इसे सींचती हूँ। देखो, कितना हरा-भरा हो गया है। यह कहते-कहते उसने सिर उठाकर कुँअर की और ताकते हुए कहा और सब काम भूल जाऊँ , पर इस पौधे को पानी देना नहीं भूलती। तुम्हीं इसके प्राण- दाता हो। तुम्हीं ने आकर इसे जिला दिया, नहीं तो वेचारा सूख गया होता । यह तुम्हारे शुभागमन का स्मृति-चिह्न है । ज़रा इसे देखो । मालूम होता है, हँस रहा है। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि यह मुझसे वोलता है। सच कहती हूँ, कभी यह रोता है, कभी हँसता है, कभी रूठता है ; आज तुम्हारा लाया हुआ पानी पाकर यह फूला नहीं समाता । एक-एक पत्ता तुम्हें धन्यवाद दे रहा है। कुँअर को ऐसा जान पड़ा, मानो वह पौवा कोई नन्हा-सा क्रीडाशील बालक है। जैसे चुम्बन से प्रसन्न होकर बालक गोद में चढने के लिए दोनों हाथ फैला देता है, उसी भाँति यह पौधा भी हाथ फैलाये जान पड़ा। उसके एक-एक अणु में चन्दा का प्रेम झलक रहा था। चन्दा के घर में खेती के सभी औज़ार थे। कुँअर एक फावड़ा उठा लाये और पौधे का एक थाला बनाकर चारों ओर ऊँची मेंड़ उठा दी। फिर खुरपी लेकर अन्दर की मिट्टी को गोड़ दिया। पौधा और भी लहलहा उठा । चन्दा वोली-कुछ सुनते हो, क्या कह रहा है ? कुँअर ने मुसकिराकर कहा-हाँ, कहता है-अम्माँ की गोद में बैठूगा। चन्दा-नहीं, कह रहा है, इतना प्रेम करके फिर भूल न जाना। ( ३ ) मगर कुअर को अभी राजपुत्र होने का दण्ड भोगना बाकी था । शत्रुओं को न- जाने कैसे उनकी टोह मिल गई। इधर तो हितचिन्तकों के आग्रह से विवश होकर बूढा कुबेरसिंह चन्दा और कुँअर के विवाह की तैयारियां कर रहा था, उधर शत्रुओं
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