सती उसके घरौंदे किले होते थे ; उसकी गुड़ियाँ ओढ़नी न ओढ़ती थीं। वह सिपाहियों के गुड्डे बनाती और उन्हें रण-क्षेत्र में खड़ा करती थी। कभी-कभी उसका पिता सन्ध्या समय भी न लौटता , पर चिन्ता को भय छू तक न गया था। निर्जन स्थान में भूखी-प्यासी रात-रात भर बैठी रह जाती। उसने नेवले और सियार को कहानियाँ कभी न सुनी थीं । वीरों के आत्मोत्सर्ग की कहानियाँ, और वह भी योद्धाओं के मुंह से, सुन सुनकर वह आदर्शवादिनी बन गई थी। एक बार तीन दिन तक चिन्ता को अपने पिता की खबर न मिली। वह एक पहाड़ की खोह में बैठी मन-ही-मन एक ऐसा किला बना रही थी, जिसे शत्रु किसी भांति जान न सके । दिन-भर वह उसी किले का नकशा सोचतो और रात को उसी किले का स्वप्न देखती। तीसरे दिन सन्ध्या समय उसके पिता के कई साथियों ने आकर उसके सामने रोना शुरू किया। चिन्ता ने विस्मित होकर पूछा-दादाजी कहाँ हैं ? तुम लोग क्यों रोते हो ? किसी ने इसका उत्तर न किया। वे जोर से धाड़े मार-मारकर रोने लगे। चिन्ता समझ गई कि उसके पिता ने वीर-गति पाई। उस तेरह वर्ष की बालिका की आँखों से आंसू की एक बूंद भी न गिरो, मुख ज़रा भी मलिन न हुआ, एक आह भी न निकली । हँसकर वोली -अगर उन्होंने वीर-गति पाई, तो तुम लोग रोते क्यों हो ? योद्धाओं के लिए इससे बढ़कर और कोन मृत्यु हो सकती है, इससे वढकर उनकी वीरता का और क्या पुरस्कार मिल सकता है ? यह रोने का नहीं, आनन्द मनाने का अवसर है। एक सिपाही ने चिन्तित स्वर में कहा-हमें तुम्हारी चिन्ता है। तुम अब कहाँ रहोगी ? चिन्ता ने गंभीरता से कहा-इसकी तुम कुछ चिन्ता न करो, दादा ! मैं अपने वाप की बेटी हूँ। जो कुछ उन्होंने किया, वही मैं भी करूंगी। अपनी मातृ-भूमि को शत्रुओं के पंजे से छुड़ाने में उन्होंने प्राण दे दिये। मेरे सामने भी वही आदर्श है। जाकर अपने आदमियों को सँभालिए। मेरे लिए एक घोड़े और हथियारों का प्रबन्ध कर दीजिए। ईश्वर ने चाहा, तो आप लोग मुझे किसी से पीछे न पायेंगे लेकिन यदि मुझे पीछे हटते देसना, तो तलवार के एक हाथ से इस जीवन का अन्त कर देना । यही मेरी आपसे विनय है । जाइए, अब विलम्ब न कीजिए। . 3
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