पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/७४

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६८ मानसरोवर सिपाहियों को चिन्ता के ये वीर-वचन सुनकर कुछ भी आश्चर्य नहीं हुआ । हाँ, उन्हें यह सदेह अवश्य हुआ कि क्या यह कोमल वालिका अपने सकल्प पर दृढ रह सकेगी ? ( ३ ) पाँच वर्ष बीत गये । समस्त प्रान्त में चिन्तादेवी की धाक बैठ गई। शत्रुओं के कदम उखड़ गये । वह विजय की सजीव मूर्ति थी, उसे तीरों और गोलियों के सामने निश्शक खड़े देखकर सिपाहियों को उत्तेजना मिलती रहती थी। उसके सामने वे कैसे कदम पीछे हटाते ? जव कोमलांगी युवती आगे बढ़े, तो कौन पुरुष कदम पीछे हटायेगा ? सुन्दरियों के सम्मुख योद्धाओं की वीरता अजेय हो जाती है। रमणी के वचन-वाण योद्धाओं के लिए आत्म-समर्पण के गुप्त सदेश हैं, उसकी एक चितवन कायरों में भी पुरुषत्व प्रवाहित कर देती है। चिन्ता की छवि-कीति ने मनचले सूरमाओं को चारों ओर से खींच-खींचकर उसकी सेना को सजा दिया- जान पर खेलनेवाले भौंरे चारों ओर से आ-आकर इस फूल पर मॅडराने लगे। इन्हीं योद्धाओं में रत्नसिंह नाम का युवक राजपूत भी था। यों तो चिन्ता के सैनिकों में सभी तलवार के वनी थे ; बात पर जान देनेवाले, उसके इशारे पर आग में कूदनेवाले, उसकी आज्ञा पाकर एक चार आकाश के तारे तोड़ लाने को भी चल पड़ते , किन्तु रत्नसिंह सबसे बढा हुआ था। चिन्ता भी हृदय में उससे प्रेम करती थी। रत्नसिंह अन्य वीरो की भाँति अक्खड़, मुँहफट या घमण्डी न था । और लोग अपन-अपनी कीर्ति को खूब बढा-वढाकर वयान करते । आत्म-प्रशंसा करते हुए उनकी जवान न रुकती थी। वे जो कुछ करते, चिन्ता को दिखाने के लिए । उनका ध्येय अपना कर्तव्य न था, चिन्ता थी । रत्नसिंह जो कुछ करता, शान्त भाव से। अपनी प्रशसा करना तो दूर रहा, वह चाहे कोई शेर ही क्यो न मार आये, उसकी चरचा तक न करता । उसकी विनयशीलता और नम्रता, सकोच की सीमा से भिड़ गई थी। औरों के प्रेम में विलास था; पर रत्नसिंह के प्रेम में त्याग और तप । और लोग मीठी नींद सोते थे ; पर रत्नसिंह तारे गिन-गिनकर रात काटता था और सब अपने दिल में समझते थे कि चिन्ता मेरी होगी-केवल रत्नसिह निराश था, और इसलिए उसे किसी, से न द्वष था, न राग। औरों को चिन्ता के सामने चहकते देखकर उसे उनकी वाक्पटुता पर आश्चर्य होता, प्रतिक्षण उसका निराशांधकार और भी