पृष्ठ:मानसरोवर भाग 5.djvu/७८

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मानसरोवर चिन्ता-तो मैं भी चलूंगी। 'नहीं, मुझे आशा है, वे लोग ठहर न सकेंगे। मैं एक ही धावे में उनके कदम उखाड़ दूंगा। यह ईश्वर की इच्छा है कि हमारी प्रणय-रात्रि विजय-रात्रि हो । 'न-जाने क्यों मन कातर हो रहा है । जाने देने को जी नहीं चाहता !' रत्नसिह ने इस सरल, अनुरक्त आग्रह से विह्वल होकर चिन्ता को गले लगा लिया और बोले-मैं सबेरे तक लौट आऊँगा, प्रिये ! चिन्ता पति के गले में हाथ डालकर आँखों में आँसू भरे हुए बोली-मुझे भय है, तुम बहुत दिनों में लौटोगे। मेरा मन तुम्हारे साथ रहेगा। जाओ, पर रोज़ खवर भेजते रहना। तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, अवसर का विचार करके धावा करना । तुम्हारी आदत है कि शत्रु देखते ही आकुल हो जाते हो, और जान पर खेलकर टूट पड़ते हो । तुमसे मेरा यही अनुरोध है कि अवसर देखकर काम करना । जाओ, जिस तरह पीठ दिखाते हो, उसी तरह मुँह दिखाओ। चिन्ता का हृदय कातर हो रहा था। वहाँ पहले केवल विजय-लालसा का आधिपत्य था, अब भोग लालसा की प्रधानता थी। वही वीर वाला, जो सिहिनी की तरह गरजकर शत्रुओं के कलेजे कॅपा देती थी, आज इतनी दुर्बल हो रही थी कि जब रत्नसिह घोड़े पर सवार हुआ, तो आप उसकी कुशल-कामना से मन-ही-मन देवी की मनौतियों कर रही थी। जब तक वह वृक्षों की ओट में छिप न गया, वह खड़ी उसे देखती रही, फिर वह किले के सबसे ऊँचे वुर्ज पर चढ गई, और घटों उसी तरफ ताकती रही। वहाँ शून्य था, पहाड़ियों ने कभी का रत्नसिंह को अपनी ओट में छिपा लिया था; पर चिन्ता को ऐसा जान पड़ता था कि वह सामने चले जा रहे हैं। जब ऊषा की लोहित छवि वृक्षों को आड़ से झांकने लगी, तो उसकी मोह-विस्मृति टूट गई । मालूम हुआ, चारों ओर शून्य है। वह रोती हुई बुर्ज से उतरी, और शय्या पर मुँह ढाँपकर रोने लगी। ( ६ ) रत्नसिंह के साथ मुशकिल से सौ आदमी थे , किन्तु सभी मॅजे हुए, अवसर और सख्या को तुच्छ समझनेवाले, अपनी जान के दुश्मन ! वे वीरोल्लास से भरे हुए एक वीर-रस-पूर्ण पद गाते हुए घोड़ों को चढाये चले जाते थे- >