पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/११८

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पाप का श्रमिकुण्ड इनका कृतज्ञ होकर अपनी प्रतिज्ञा तोड़नी पड़े। राजनन्दिनी ने उसकी सूरत देखकर कहा--सखो, क्या बात है ? यह क्रोध क्यों ' व्रजविलासिनी ने सावधानी से कहा--कुछ नहीं, न जाने क्यों चकार या गया था। श्राज से व्रजविलासिनी के मन में एक और चिन्ता उत्पन्न हुई -क्या मुझे गनकुमारियो का कृतश होकर अपना प्रण तोरना पड़ेगा ? पूरे सोलह महीने के बाद अफगानिस्तान से पृथ्वीसिंह और धर्मसिंह लौटे। बादशाह की सेना को बड़ी-बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा । बर्फ अविकता ने पड़ने लगी । पहाड़ों के दरें बर्फ से ढंक गये । आने-जाने के रास्ते चन्न हो गये । रसद के सामान कम मिलने लगे। सिपाही भूग्यों मरने लगे। सन अफगानों ने समय पाकर रात को छापे मारने शुरू किये । आखिर शाहजादे मुहीउद्दीन को हिम्मत हारकर लौटना पड़ा। दोनों राजकुमार ज्यों ज्यों जोधपुर के निकट पहुँचते थे, उत्कण्ठा से उनके मन उमद्दे प्राते थे। इतने दिनों के वियोग के बाद फिर भेंट होगी । मिलने की तृष्णा बढ़ती जाती है । रात-दिन मंजिलें काटते चले आते हैं, न थकावट मालूम होती है. न माँदगो । दोनों घायल हो रहे हैं, पर फिर भी मिलने की ग्युशी में जल्मों को तकलीफ, भूने हुए हैं । पृथ्वीसिंह दुर्गाकुँवरि के लिए एक अफगानी कटार लाये हैं। धर्मसिंह ने राजनन्दिनी के लिए काश्मीर का एक बहुमूल्य शाल जोड़ा गोल लिया है। दोनों के दिल उमंग से भरे हुए हैं। राजकुमारियों ने जर सुना कि दोनों वीर वापरा पाते हैं, तो वे फूले अंगों न समाई । शृगार किया जाने लगा, मांगे मोतियों से भरी जाने लगों, उनके चेहरे खुशी से दमकने लगे। इतने दिनों के विछोह के बाद फिर मिलाप होगा, मुशी आँखों से उबली पढ़नी है । एक दूसरे का छेड़ती हैं और खुश होकर गले मिलती हैं। अगहन का महीना था, बरगद की हालियों में मूंगे के दाने लगे घे जोधपुर के किले ने सलामियों की धनगरज आवा पाने लगी। सारे नगर में धुम मच गपी कि ऊँबर पृथ्वीसिद रकुशल अफगानिस्तान से लौट आये। दोनों मजकुमारियाँ गली में आरनो के सामान लिये दरवाजे पर सड़ी यो। परमिरग्यास्यिों के मजरेने साल मारी।