१३४ मानसरोवर उतारी और दोनों एक दूसरे को देखकर खुश हो गये । धर्मसिंह भी प्रसन्नता से ऐंठते हुए अपने महल में पहुँचे, पर भीतर पैर रखने भी न पाये थे कि छींक हुई और बाई आँख फड़कने लगी। राजनन्दिनी श्रारती का याल लेकर लपकी, पर उसका पैर फिसल गया और थाल हाथ से छूटकर गिर पड़ा। धर्मसिंह का माथा ठनका और राजनन्दिनी का चेहरा पीला हो गया । यह असगुन क्यों ? व्रजविलासिनी ने दोनों राजकुमारों के आने का समाचार सुनकर उन दोनों को देने के लिए दो अभिनन्दन-पत्र बना रखे थे । सवेरे जब कुँवर पृथ्वीसिंह सन्ध्या आदि नित्य-क्रिया से निपटकर बैठे, तो वह उनके सामने आयी और उसने एक सुन्दर कुश की चंगेली में अभिनन्दन पत्र रख दिया । पृथ्वीसिंह ने उसे प्रसन्नता से लिया । कविता यद्यपि उतनी बढ़िया न थी, पर वह नयी और वीरता से भरी हुई थी। वे वीररस के प्रेमी थे, उसको पढ़कर बहुत खुश हुए और उन्होंने मोतियों का हार उपहार दिया। व्रजविलासिनी यहाँ से छुट्टी पाकर कुँवर धर्मसिंह के पास पहुंची। वे बैठे हुए राजनन्दिनी को लड़ाई की घटनाएँ सुना रहे थे, पर ज्यो ही व्रजविलासिनी की आँख उन पर पड़ी, वह सन्न होकर पीछे हट गयी। उसको देखकर धर्मसिंह के चेहरे का भी रग उड़ गया, होंठ सूख गये और हाथ-पैर सनसनाने लगे । व्रजविलासिनी तो उलटे पाँव लौटी , पर धर्मसिंह ने चारपाई पर लेटकर दोनो हाथों से मुंह ढंक लिया। राजनन्दिनी ने यह दृश्य देखा और उसका फूल सा बदन पसीने से तर हो गया। धर्मसिंह सारे दिन पलँग पर चुपचाप पड़े करवटें बदलते रहे । उनका चेहरा ऐसा कुम्हला गया जैसे वे बरसो के रोगी हों । राजनन्दिनी उनकी सेवा में लगी हुई थी । दिन तो यो कटा, रात को कुँवर साहब सन्ध्या ही से थकावट का बहाना करके लेट गये । राजनन्दिनी हैरान थी कि माजरा क्या है । व्रजविलासिनी इन्हीं के खून की प्यासी है ? क्या यह सम्भव है कि मेरा प्यारा, मेरा मुकुट धर्मसिंह ऐसा कठोर हो ? नहीं, नहीं, ऐसा नहीं हो सकता । वह यद्यपि चाहती है कि अपने भावों से उनके मन का बोझ हलका करे, पर नहीं कर सकती । अन्त को नींद ने उसको अपनी गोंद में ले लिया।
पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/११९
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