पृष्ठ:मानसरोवर भाग 6.djvu/१२६

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ग्राभूषण विमल-अपने को अभागिनी समझती हो ? शीतला-हूँ ही, समझना कैसा ? नहीं तो क्या दूसरे को देग्व कर नरसना पड़ता। विमल~~-गहने बनवा दूं तो अपने को भाग्यवती समझने लगोगी ? शीतला-(चिढ़कर ) तुम तो इस तरह पूछ रहे हो, जैसे सुनार दरवाजे पर बैठा है! विमल-नहीं, सब कहता हूँ, बनवा दूंगा। हाँ, कुछ दिन सबर करना पढ़ेगा। ( २ ) समर्थ पुरुपों को बात लग जाती है, तो प्राण ले लेते हैं। सामर्थ्यहीन पुरुप अपनी ही जान पर खेल जाता है । विमलसिंह ने घर से निकल जाने की ठानी । निश्चय किया, या तो इसे गहनों से ही लाद दूंगा या वैधव्य शोक से । या तो आभूषण ही पहनेगी या सेंदुर को भी तरसेगी। दिन-भर वह चिंता में इबा पड़ा रहा। शीतला को उसने प्रेम से संतुष्ट करना चाहा था । अाज अनुभव हुआ कि नारी का हृदय प्रेमपाश से नहीं बघता, कचन के पाश ही से बंध सकता है । पहर रात जाते-जाते वह घर से चल एका हुमा । पं.छे फिरकर भी न देखा । ज्ञान से जागे हुए विराग में चाहे मोह का सरकार हो, पर नैराश्य से जागा हुआ विराग अचल होता है। प्रकाश में इधर-उधर की वस्तुत्रों को देखकर मन विचलित हो सकता है। पर अधकार मे किसका साहस है, जो लीक से जी भर भी हट सके ! विमल के पास विद्या न थी, कला कौशल भी न था। उसे देवल अपने काठन परिश्रम और कटिन आत्म त्याग दी का आधार था। वह पहले कलकत्ते गया । वहाँ कुछ दिन तक एक सेट की दरबानी करता रहा। वहाँ जो सुन पाया कि रंगून में मजदूरी अन्ही मिलती है, तो रंगून जा पहुँचा और बंदर पर माल चढ़ाने उतारने का काम करने लगा। कुछ तो काटिन श्रम, कुछ साने पीने के असंयम और दुछ जलवायु की सायी के कारण वह बीमार हो या । शरीर दुर्बल हो गया, मुख की काति